...

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जीवन संध्या
विषय-शाम /संध्या

सुबह से ही इस विषय पर सोचने लगा , बहुत सोचा पर कोई कविता ना मिली . समझ में आई तो बस एक बात , कि हम स्वभाव से ही स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं .

"उगते सूरज को प्रणाम करना तो संस्कारों में डल गया ,
मग़र उसकी उपेक्षा ही की जो ढल गया ."

जब घर में नवजीवन का आगमन होता है , हम हर्षोल्लास से भर जाते हैं , बधाइयाँ दी जाती हैं , नजरें उतारी जाती हैं . स्वाभाविक ही है , बच्चे किसी के भी हों उनकी मासूमियत सभी को आकर्षित करती है , अपना बचपन याद दिलाती है.मेरे एक मित्र कहा करते हैं,'बच्चे तो सूअर के भी प्यारे लगते हैं",हँसने की बात नहीं है, बेशक लगते हैं. बच्चों को देख बरबस प्रेम उमड़ ही आता है.
पर क्या यही भावना हमें घर के बुजुर्गों को देखकर कभी उमड़ी, बड़ा अटपटा सा सवाल लग रहा होगा आपको , "भई , बच्चों और बुजुर्गों में क्या समानता है ?"
समानता है ,और लगभग वही समानता जो ऊषा किरणों की लालिमा , और सांध्यकालीन लालिमा में है ....खूबसूरती में दोनों ही मन मोह लेती हैं , पर अक्सर उगते सूरज को जोश , तो वहीं ढलते सूरज को अवसाद से जोड़कर देखा जाता है .

जीवन एक दिन की तरह है , जहाँ
बचपन खिलती सुबह सा है तो ,
वहीं यौवन मेहनतकश धूप सा ,
और बुढ़ापा खूबसूरत संध्या वेला है ,
जिसमें ढलता हुआ सूरज
दिनभर के सारे अनुभवों को
बड़ी खूबसूरती के साथ
बिखेरता जाता है ,
हम देख नहीं पाते ,
और वो उपेक्षित सा ढल जाता है.

अन्त में बस यही संदेश देना चाहूंगा कि , प्रातः काल और संध्या दोनों ही आवश्यक हैं , दोनों ही समान खूबसूरत हैं ...
सुबह और शाम दोनों को समान रूप से प्यार और सम्मान दें.

यौवन की धूप ढल रही है , उदास ना हो
इस शाम के तजुर्बे भी ज़रूरी हैं ,ज़िन्दगी के लिए .
#वरुणपाश


© बदनाम कलमकार