...

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खुद से खुद की पहचान
खुद से खुद की पहचान करते करते
रह गये जज़्बात बयान करते करते।
कभी बिना सोचे दिल न माने मेरा,
और कभी किस्मत दिखाये तमाशा
हाथ मलते मलते।
इसकी उसकी सोच कर क्या खुद को
हम पहचान पाये?
जिंदगी बीत गयी खुद से खुद को पहचानते
पहचानते।
जरा सोच कर तो देखो खुद को क्या चाहिए,
कहीं निकल जाये न सांस चलते चलते।
ये दुनिया, ये घर, ये समाज कितनी दिवारे हैं
इंसान के अंदर।
बस इन्ही के लिए रह जाते हैं लोग, तन्हा उम्र ढलते ढलते ।
खुद से खुद की पहचान न कर दूसरे में उलझे रहते हैं।
यही बदली सोच है शायद यही नई किताब के पन्ने।
जो थक गये हैं लोग इन पन्नों को पलटते पलटते।
सच कहें तो वो क्या पहचान बनाएं जो खुद ही न चल पाएं।
जितनी कैद की आज़ादियां उतनी लोग पाबंदियाँ लगाएं
नही बदल सकता समाज इन कोरी बातों से,
नहीं बन सकती पहचान खोकले बोलों से।
थक कर रह गये हैं शब्द आज हम निशब्द खड़े हैं।
खुद की सुनने के लिए भी आज जंज़ीरों में जकड़े हैं।


© sangeeta ki diary