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मंथन
मित्रों शुभप्रभात।मित्रों कितना टूटना होता है न, कुछ शब्द जोड़ने के लिये।
स्त्रीयों का कविता करना नेसर्गीक है, कविता का हि प्रतिरूप हैं स्त्रीयाँ, रोम रोम मैं कविता हैं उनके। पर देख रहा हूँ, नये नये युवा शायरी कर रहें हैं, उनकी बातें दिल तक लगती हैं मेरी, और क़ितने रजनीश बनाएगा ये समाज,कवि हो जाना और कवि बन जाना बहुत अंतर से वाकिफ हूँ मैं इसके,कवि हो जाने को एक त्रासदी हि मानता हूँ मैं उक्त व्यक्ति के लिये, किस माहौल, किस तन्हाई,किस झंजावात मैं, वो अपनी हकीकत और सच्चाई बयान करता है,ग़ज़ल और कविताओं की बाढ़ ज़ब भी समाज मैं आती है, वो समय लेखन की दृष्टि मै भला है, पर मनुष्यता, भेदभाव, अभाव, तंगहाली, और प्रेम की रिक्तता वो भी बयान करता है ये समय।
एक भी कविता शासन,व्यवस्था के खिलाफ पूरी नहीं लिख पाया मैं,या ये कहूँ लिख हि नहीं पाया,मेरे ख़ुद के हि इतने दर्द और अफसाने हैं,इनसे लड़ने के बजाय मेरी कविता ख़ुद को हि जिम्मेदार ठहराती है अक्सर,डर नहीं रह गया अब कलमों का,जो डर पहले था सत्ताओं मैं, क्या हो गयी है कलम की गति कोई नहीं जाता इसके कारण मैं,
मैं एक दावा पूरे अनुभव से करता हूँ, अगर शासन और सत्तायें पूरे मनोवेग से अच्छे समानता मुलक व्यवस्थाएं दें,तो यें दर्द और कवितायें कागज की परिधि से बाहर निकलेंगी। जो तब रह पाएंगी कागज मै, वो कवितायें निर्माण करेंगी नया, मारक और ओजस्वी होंगी वो पंगु और लाचार नहीं। धन्यवाद।
रजनीश


© rajnish suyal