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तेरी ख़ामोशी
कभी-कभी सोचता हूँ कि तुम इतनी ख़ामोश क्यूँ रेहती हो, फ़िर ना जाने क्यों लगता है कि तुम अपनी आँखों से कुछ कहना चाहती हो, कभी कभी सोचता कि पूछ ही लूं फिर ना जाने क्यूँ लगता है कि तुम्हारी आँखें कुछ कह रही हैं, मुझे मालूम है कि तुम अपनी ख़ामोशी को तो कभी नहीं तोड़ेगी मगर फिर भी कम से कम अपनी निगाहें तो ना छिपाया करो, इन छिपी निगाहों से मैं तुम्हारी ख़ामोशी कैसे पाढूं और कैसे जानू कि तुम क्या कहना चाहती हो, तुम्हें यूँ रोज देख-देख तुम्हारी आदत सी होने लगी है, एक दिन ना देखूँ तो लगता कहीं तुम मुझे छोड़ चली तो नहीं गई, फ़िर मेरा दिल कहता कि वो तेरी हुई ही कब थी, फिर मैं अपने उस दिल को समझाता हूँ कि ए-मेरे-दिल क्या तुझे दिखता नहीं कि वो अभी तक किसी और की भी नहीं हुई....!!ख़ामोश भले ही तेरी जुबान मगर इन निगाहों ने तेरी ख़ामोशी तोड़ रखा!!
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