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चार्वाक महाभारत का
चार्वाक महाभारत का

इस कथा का आरंभ करने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर चार्वाक कौन थे। ऐसा माना जाता है कि चार्वाक गुरु बृहस्पति के शिष्य थे। उनका दर्शन लोकायत दर्शन के रूप में भी जाना जाता है। उनके बारे में चाणक्य भी जिक्र करते हैं।

चार्वाक के अनुसार जो भी आंखों के सामने प्रत्यक्ष है वो ही सच है। ईश्वर, स्वर्ग, नरक,लोक,परलोक, पुनर्जन्म।आदि को वो इनकार करते थे। जो भी इस संसार में आंखों के सामने दृष्टिगोचित होता है , वो ही सुख और दुख का कारण हो सकता है।

चार्वाक इस शरीर को सबसे बड़ा प्रमाण मानते थे। उनके सिद्धांत को उनके द्वारा प्रदिपादित किए गए इन श्लोकों से समझा जा सकता है।

“यावज्जीवेत सुखं जीवेद,
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत,
भस्मी भूतस्य देहस्य,
पुनरागमनं कुतः?"

अर्थात जब तक जियो सुख से जिओ। ऋण लेकर भी घी पियो। शरीर के जल कर राख हो जाने के बाद इसे दुबारा लौटते हुए किसने देखा है?

बाद में उनकी इसी नास्तिकता वादी विचार धारा का पालन करने वाले चार्वाक कहलाने लगे। जाहिर सी बात है आस्तिक विचारधारा का पालन करने वाले इनसे प्रेम तो नहीं करते।

महाभारत युद्ध के समाप्ति के उपरांत जब युद्धिष्ठिर का राज्यारोहण होने वाला होता है तब एक चार्वाक का जिक्र आता है जो दुर्योधन का मित्र होता है। उसे चार्वाक राक्षस के रूप में भी संबोधित किया जाता है।

क्या कारण है कि दुर्योधन का एक मित्र जो कि नस्तिकतावादी दर्शन का अनुयायी था, दुर्योधन की मृत्यु के उपरांत उसके पक्ष में आ खड़ा होता है, ये जानते हुए भी कि वहां पर कृष्ण भी उपस्थित हैं।

जाहिर सी बात है , इस समय उसके सहयोग में कोई खड़ा होने वाला नहीं था। उसे पता था कि वो अपनी मृत्यु का आमरण दे रहा है। फिर भी वो दुर्योधन के पक्ष में मजबूती से आ खड़ा होता है। चार्वाक का दुर्योधन के प्रति इतना लगाव क्यों? आइए देखते हैं इस कथा में।

महाभारत की लड़ाई का एक पहलू है धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई तो एक दूसरा पक्ष भी है, आस्तिकता और नास्तिकता की लड़ाई। एक तरफ तो पांडव हैं जो भगवान श्रीकृष्ण को अपना कर्णधार मानते हैं। उनको अपना मार्गदर्शन मानते हैं। उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की ईश्वर के साक्षात अवतार के रूप में देखते हैं।

तो दूसरी तरफ दुर्योधन है जो श्रीकृष्ण को एक छलिया और मायावी पुरुष के रूप में देखता है। दुर्योधन अगर श्रीकृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में कभी नहीं स्वीकार किया। शायद दुर्योधन कहीं ना कहीं नास्तिकता बड़ी विचारधारा का समर्थक था। इसी कारण तो अपनी जान की बाजी लगाकर चार्वाक उसके समर्थन में भरी सभा में युधिष्ठिर को ललकारता है।

महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व के अष्टात्रिंशोऽध्यायः [38 अध्याय] में इस घटना का जिक्र आता है। ये अध्याय पांडवों के नगर प्रवेश के समय पुर वासियों तथा ब्राह्मणों द्वारा राजा...