चार्वाक महाभारत का
चार्वाक महाभारत का
इस कथा का आरंभ करने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर चार्वाक कौन थे। ऐसा माना जाता है कि चार्वाक गुरु बृहस्पति के शिष्य थे। उनका दर्शन लोकायत दर्शन के रूप में भी जाना जाता है। उनके बारे में चाणक्य भी जिक्र करते हैं।
चार्वाक के अनुसार जो भी आंखों के सामने प्रत्यक्ष है वो ही सच है। ईश्वर, स्वर्ग, नरक,लोक,परलोक, पुनर्जन्म।आदि को वो इनकार करते थे। जो भी इस संसार में आंखों के सामने दृष्टिगोचित होता है , वो ही सुख और दुख का कारण हो सकता है।
चार्वाक इस शरीर को सबसे बड़ा प्रमाण मानते थे। उनके सिद्धांत को उनके द्वारा प्रदिपादित किए गए इन श्लोकों से समझा जा सकता है।
“यावज्जीवेत सुखं जीवेद,
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत,
भस्मी भूतस्य देहस्य,
पुनरागमनं कुतः?"
अर्थात जब तक जियो सुख से जिओ। ऋण लेकर भी घी पियो। शरीर के जल कर राख हो जाने के बाद इसे दुबारा लौटते हुए किसने देखा है?
बाद में उनकी इसी नास्तिकता वादी विचार धारा का पालन करने वाले चार्वाक कहलाने लगे। जाहिर सी बात है आस्तिक विचारधारा का पालन करने वाले इनसे प्रेम तो नहीं करते।
महाभारत युद्ध के समाप्ति के उपरांत जब युद्धिष्ठिर का राज्यारोहण होने वाला होता है तब एक चार्वाक का जिक्र आता है जो दुर्योधन का मित्र होता है। उसे चार्वाक राक्षस के रूप में भी संबोधित किया जाता है।
क्या कारण है कि दुर्योधन का एक मित्र जो कि नस्तिकतावादी दर्शन का अनुयायी था, दुर्योधन की मृत्यु के उपरांत उसके पक्ष में आ खड़ा होता है, ये जानते हुए भी कि वहां पर कृष्ण भी उपस्थित हैं।
जाहिर सी बात है , इस समय उसके सहयोग में कोई खड़ा होने वाला नहीं था। उसे पता था कि वो अपनी मृत्यु का आमरण दे रहा है। फिर भी वो दुर्योधन के पक्ष में मजबूती से आ खड़ा होता है। चार्वाक का दुर्योधन के प्रति इतना लगाव क्यों? आइए देखते हैं इस कथा में।
महाभारत की लड़ाई का एक पहलू है धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई तो एक दूसरा पक्ष भी है, आस्तिकता और नास्तिकता की लड़ाई। एक तरफ तो पांडव हैं जो भगवान श्रीकृष्ण को अपना कर्णधार मानते हैं। उनको अपना मार्गदर्शन मानते हैं। उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की ईश्वर के साक्षात अवतार के रूप में देखते हैं।
तो दूसरी तरफ दुर्योधन है जो श्रीकृष्ण को एक छलिया और मायावी पुरुष के रूप में देखता है। दुर्योधन अगर श्रीकृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में कभी नहीं स्वीकार किया। शायद दुर्योधन कहीं ना कहीं नास्तिकता बड़ी विचारधारा का समर्थक था। इसी कारण तो अपनी जान की बाजी लगाकर चार्वाक उसके समर्थन में भरी सभा में युधिष्ठिर को ललकारता है।
महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व के अष्टात्रिंशोऽध्यायः [38 अध्याय] में इस घटना का जिक्र आता है। ये अध्याय पांडवों के नगर प्रवेश के समय पुर वासियों तथा ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार और उन पर आक्षेप करने वाले चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध आदि घटना का वर्णन करता है।
इस अध्याय के पहले होने वाली घटना का जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा। ये सब जानते हैं कि महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पहले अर्जुन मानसिक अवसाद का शिकार हो जाते हैं और उन्हें समझाने के लिए ही श्रीकृष्ण को गीता का ज्ञान देना पड़ता है। गीता का उपदेश सुनने के बाद हीं अर्जुन युद्ध कर पाए।
कुछ इसी तरह के मानसिक अवसाद का शिकार युधिष्ठिर भी हुए थे, महाभारत युद्ध को समाप्ति के बाद। अपने।इतने सारे बंधु, बांधवों और गुरु आदि के संहार से व्यथित युधिष्ठिर राज्य का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान करना चाहते थे। पांडवों,कृष्ण और व्यास जी के काफी समझाने के बाद वो राजी होते हैं अपने भाईयों, मित्रों और श्रीकृष्ण के साथ राज्याभिषेक के लिए नगर में प्रवेश करते हैं। आइए देखते हैं फिर क्या होता है।
कुम्भाश्च नगरद्वारि वारिपूर्णा नवा दृढाः।
तथा स्वलंकृतद्वारं नगरं पाय सिताः
सुमनसो गौराः स्थापितास्तत्र तत्र ह ॥४८॥
नगर के द्वार पर जल से भरे हुए नूतन एवं सुदृढ़ कलश अपने सुहृदों से घिरे हुए पाण्डु नन्दन के लिए रखे गये थे और जगह-जगह सफेद फूलों के गुच्छे रख दिये गए थे।
राजमहल के भीतर प्रवेश कर के श्रीमान् नरेश ने कुल देवताओं का दर्शन किया और रत्न चन्दन तथा माला आदि से सर्वथा उनकी पूजा की ॥१४॥
निश्चकाम ततः श्रीमान् पुनरेव महायशाः।
ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान् ॥१५॥
इसके बाद महा यशस्वी श्रीमान् राजा युधिष्ठिर महल से बाहर निकले । वहाँ उन्हें बहुत से ब्राह्मण खड़े दिखायी दिये, जो हाथमें मङ्गलद्रव्य लिये खड़े थे ॥ १५॥ जब सब ब्राह्मण चुपचाप खड़े हो गये, तब ब्राह्मण का वेष बनाकर आया हुआ चार्वाक नामक राक्षस राजा युधिष्ठिर से कुछ कहनेको उद्यत हुआ ॥२२॥
यहां पर हम देखते हैं कि युधिष्ठिर के स्वागत के लिए सारे ब्राह्मण समाज वहां खड़ा था और उनकी अपेक्षा के अनुरूप हीं युधिष्ठिर कुल देवताओं की पूजा करते हुए अपनी आस्तिकतावादी प्रवृत्ति को परिलक्षित करते हैं।
तत्र दुयोधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः।
साक्षःशिस्त्री त्रिदण्डीच धृष्टो विगतसाध्वसः ॥२३॥
वह दुर्योधन का मित्र था। उसने संन्यासी ब्राह्मण के वेषमें अपने असली रूपको छिपा रखा था। उसके हाथमें अक्ष माला थी और मस्तक पर शिखा उसने त्रिदण्ड धारण कर रखा था। वह बड़ा ढीठ और निर्भय था ॥२३॥
वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वाद विवाभिः।
परःसहनै राजेन्द्र तपोनियमसंवृतः ॥२४॥
स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम् ।
अनामन्त्र्यैव तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम् ॥ २५॥
राजेन्द्र ! तपस्या और नियम में लगे रहनेवाले और आशीर्वाद देनेके इच्छुक उन समस्त ब्राह्मणोंसे, जिनकी संख्या हजार से भी अधिक थी, घिरा हुआ वह दुष्ट राक्षस महात्मा पाण्डवों का विनाश चाहता था। उसने उन सब ब्राह्मणों से अनुमति लिये बिना ही राजा युधिष्ठिर से कहा ॥ २४-२५ ॥
चार्वाक उवाच इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि।
धिग भवन्तं कुनृपति शातिघातिनमस्तु वै॥२६॥
चार्वाक बोला-राजन् ! ये सब ब्राह्मण मुझ पर अपनी बात कहने का भार रखकर मेरे द्वारा ही तुमसे कह रहे हैं'कुन्तीनन्दन ! तुम अपने भाई-बन्धुओं का वध करनेवाले एक दुष्ट राजा हो । तुम्हें धिक्कार है ! ऐसे पुरुषके जीवनसे क्या लाभ ? इस प्रकार यह बन्धु-बान्धवों का विनाश करके गुरुजनों की हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है, जीवित रहना नहीं ॥ २६-२७ ॥
युधिष्ठिर उवाच प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः ।
प्रत्यासन्नव्यसनिनं न मां धिकर्तुमर्हथ ॥ ३० ॥
यहां दुर्योधन के मित्र चार्वाक का जिक्र आता है जिसे ब्राह्मणों ने राक्षस कहा है। इसका मतलब ये निकाला जा सकता है कि अस्तिकतावादी संस्कृति पर प्रहार करने वाले पुरुष को हीं ब्राह्मण उस चार्वाक को राक्षस के नाम से पुकारते हैं।
देखने वाली बात ये है कि ना तो रावण की तरह दुर्योधन की आस्था शिव जी में है और ना हीं अर्जुन की तरह वो शिव जी तपस्य करता है। ये अलग बात है कि वो श्रीकृष्ण के पास एक बार सहायता मांगने जरूर पहुंचता है। पर वो भी सैन्य शक्ति के विवर्धन के लिए। यहां पे उसकी राजनैतिक और कूटनीतिक चपलता दिखाई पड़ती है ना कि श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का भाव।
पूरे महाभारत में दुर्योधन श्रीकृष्ण को एक राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ के रूप में हीं देखता। दुर्योधन को भक्ति पर नहीं अपितु स्वयं की भुजाओं पर विश्वास है। वो अभ्यास बहुत करता है। इसी कारण वो श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का प्रिय शिष्य बनता है।
भीम और दुर्योधन दोनों हीं श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम से गदा युद्ध का प्रशिक्षण लेते हैं , परन्तु अपने अभ्यास और समर्पण के कारण दुर्योधन श्री बलराम का प्रिय शिष्य बन जाता है । ये बलराम का दुर्योधन के प्रति प्रेम हीं था कि वो महाभारत के युद्ध में किसी भी पक्ष का साथ नहीं देते हैं ।
श्रीकृष्ण भी दुर्योधन के इस अभ्यासी व्यक्तित्व के प्रति भीम को बार बार सावधान करते रहते हैं । कुल मिलाकर ये खा जा सकता है कि दुर्योधन को तो अपनी भुजा और शक्ति पर हीं विश्वास था , ना कि भक्ति पर या अस्तिकता पर। दुर्योधन नास्तिक हो या ना हो , परन्तु आस्तिक तो कतई नहीं था ।
इस संसार को हीं सच मानने वाला , इस संसार के लिए हीं लड़ने वाला , स्वर्ग या नरक , ईश्वर या ईश्वर के तथाकथित प्रकोप से नहीं डरने वाला एक निर्भीक पुरुष था।
दुर्योधन की तरह हीं वो चार्वाक भी निर्भय था तभी तो भरी सभा में वो युधिष्ठिर को अपने बंधु बांधवों की हत्या का भागी ठहरा कर दुत्कार सका। यहां देखने वाली बात ये है कि महाभारत युद्ध के अंत में उस चार्वाक की सहायता करने वाला कोई नहीं था।
उसे जरूर ज्ञात होगा कि पांडव जिसे भगवान मानते हैं, वो श्रीकृष्ण भी उसी सभा में मौजूद होंगे, इसके बावजूद वो घबड़ाता नहीं है। वो बिना किसी भय के युधिष्ठिर को भरी सभा में दुत्कारता है।
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने कहा--ब्राह्मणो ! मैं आपके चरणों में प्रणाम करके विनीत भावसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मुझपर प्रसन्न हों । इस समय मुझपर सब ओर से बड़ी भारी विपत्ति आ गयी है; अतः आपलोग मुझे धिक्कार न दें ॥ ३०॥
परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति ॥ ३३॥
वयं ब्रूमो न धर्मात्मन् व्येतु ते भयमीदृशम् ।
उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह ॥ ३४॥
ब्राह्मण बोले--धर्मात्मन् ! यह दुर्योधनका मित्र चार्वाक नामक राक्षस है, जो संन्यासी के रूपमें यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है । हमलोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं । आपका इस तरहका भय दूर हो जाना चाहिये। हम आशीर्वाद देते हैं कि भाइयों सहित आपको कल्याणकी प्राप्ति हो ॥३३-३४॥
वैशम्पायन जी कहते हैं--जनमेजय ! तदनन्तर क्रोध से आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा ब्राह्मणों ने उस पारात्मा राक्षस को बहुत फटकारा और अपने हुङ्कारों से उसे नष्ट कर दिया ॥ ३५ ॥
सपपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम् ।
महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३६॥
ब्रह्मवादी महात्माओं के तेजसे दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा, मानो इन्द्र के वज्र से जलकर कोई अङ्करयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो ॥ ३६ ।।
ऊपर के श्लोक 33 से श्लोक 36 में लिखी घटनाओं से ये साफ दिखाई पड़ता है कि उस चार्वाक का आरोप इतना तीक्ष्ण था कि युधिष्ठिर घबड़ा जाते हैं। युधिष्ठिर को चार्वाक के चुभते हुए आरोपों का कोई उत्तर नहीं सूझता है और वो ब्राह्मणों से निवेदन करने लगते हैं कि जिस प्रकार यह चार्वाक मुझे धिक्कार रहा है, उस प्रकार उन्हें धिक्कारा ना जाए।
और फिर सारे ब्राह्मणों ने मिलकर उस चार्वाक को बहुत फटकारा और अपने हुंकार से उसे नष्ट कर दिया। एक तरफ इतने सारे ब्राह्मण और एक तरफ वो अकेला चार्वाक। एक तरफ विजेता राजा और एक तरफ हारे हुए मृत राजा दुर्योधन की तरफ से प्रश्न उठाता चार्वाक।
आखिर युधिष्ठिर उसके प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं देते? आखिर अपने आखों के सामने उस अन्याय को होने क्यों दिया जब अनगिनत ब्राह्मण एक साथ मिलकर उस अकेले चार्वाक का वध कर देते हैं? जिस धर्म की रक्षा के लिए महाभारत युद्ध लड़ा गया, उसी धर्म की तिलांजलि देकर युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होता है।
महाभारत की लड़ाई दरअसल आस्तिकतावादी और नस्तिकतावादी भौतिक प्रवृत्ति के बीच की लड़ाई है। और।आस्तिकतावादी संस्कृति अधर्म का आचरण करके भी इसे दबाना चाहती थी और वास्तव में दबाया। युधिष्ठिर के राज्यारोहण के दिन अनगिनत ब्राह्मणों द्वारा एक अकेले नास्तिक चार्वाक का अनैतिक तरीके से वध कर देना और क्या साबित करता है?
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
इस कथा का आरंभ करने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर चार्वाक कौन थे। ऐसा माना जाता है कि चार्वाक गुरु बृहस्पति के शिष्य थे। उनका दर्शन लोकायत दर्शन के रूप में भी जाना जाता है। उनके बारे में चाणक्य भी जिक्र करते हैं।
चार्वाक के अनुसार जो भी आंखों के सामने प्रत्यक्ष है वो ही सच है। ईश्वर, स्वर्ग, नरक,लोक,परलोक, पुनर्जन्म।आदि को वो इनकार करते थे। जो भी इस संसार में आंखों के सामने दृष्टिगोचित होता है , वो ही सुख और दुख का कारण हो सकता है।
चार्वाक इस शरीर को सबसे बड़ा प्रमाण मानते थे। उनके सिद्धांत को उनके द्वारा प्रदिपादित किए गए इन श्लोकों से समझा जा सकता है।
“यावज्जीवेत सुखं जीवेद,
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत,
भस्मी भूतस्य देहस्य,
पुनरागमनं कुतः?"
अर्थात जब तक जियो सुख से जिओ। ऋण लेकर भी घी पियो। शरीर के जल कर राख हो जाने के बाद इसे दुबारा लौटते हुए किसने देखा है?
बाद में उनकी इसी नास्तिकता वादी विचार धारा का पालन करने वाले चार्वाक कहलाने लगे। जाहिर सी बात है आस्तिक विचारधारा का पालन करने वाले इनसे प्रेम तो नहीं करते।
महाभारत युद्ध के समाप्ति के उपरांत जब युद्धिष्ठिर का राज्यारोहण होने वाला होता है तब एक चार्वाक का जिक्र आता है जो दुर्योधन का मित्र होता है। उसे चार्वाक राक्षस के रूप में भी संबोधित किया जाता है।
क्या कारण है कि दुर्योधन का एक मित्र जो कि नस्तिकतावादी दर्शन का अनुयायी था, दुर्योधन की मृत्यु के उपरांत उसके पक्ष में आ खड़ा होता है, ये जानते हुए भी कि वहां पर कृष्ण भी उपस्थित हैं।
जाहिर सी बात है , इस समय उसके सहयोग में कोई खड़ा होने वाला नहीं था। उसे पता था कि वो अपनी मृत्यु का आमरण दे रहा है। फिर भी वो दुर्योधन के पक्ष में मजबूती से आ खड़ा होता है। चार्वाक का दुर्योधन के प्रति इतना लगाव क्यों? आइए देखते हैं इस कथा में।
महाभारत की लड़ाई का एक पहलू है धर्म और अधर्म के बीच की लड़ाई तो एक दूसरा पक्ष भी है, आस्तिकता और नास्तिकता की लड़ाई। एक तरफ तो पांडव हैं जो भगवान श्रीकृष्ण को अपना कर्णधार मानते हैं। उनको अपना मार्गदर्शन मानते हैं। उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की ईश्वर के साक्षात अवतार के रूप में देखते हैं।
तो दूसरी तरफ दुर्योधन है जो श्रीकृष्ण को एक छलिया और मायावी पुरुष के रूप में देखता है। दुर्योधन अगर श्रीकृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में कभी नहीं स्वीकार किया। शायद दुर्योधन कहीं ना कहीं नास्तिकता बड़ी विचारधारा का समर्थक था। इसी कारण तो अपनी जान की बाजी लगाकर चार्वाक उसके समर्थन में भरी सभा में युधिष्ठिर को ललकारता है।
महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व के अष्टात्रिंशोऽध्यायः [38 अध्याय] में इस घटना का जिक्र आता है। ये अध्याय पांडवों के नगर प्रवेश के समय पुर वासियों तथा ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार और उन पर आक्षेप करने वाले चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध आदि घटना का वर्णन करता है।
इस अध्याय के पहले होने वाली घटना का जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा। ये सब जानते हैं कि महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पहले अर्जुन मानसिक अवसाद का शिकार हो जाते हैं और उन्हें समझाने के लिए ही श्रीकृष्ण को गीता का ज्ञान देना पड़ता है। गीता का उपदेश सुनने के बाद हीं अर्जुन युद्ध कर पाए।
कुछ इसी तरह के मानसिक अवसाद का शिकार युधिष्ठिर भी हुए थे, महाभारत युद्ध को समाप्ति के बाद। अपने।इतने सारे बंधु, बांधवों और गुरु आदि के संहार से व्यथित युधिष्ठिर राज्य का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान करना चाहते थे। पांडवों,कृष्ण और व्यास जी के काफी समझाने के बाद वो राजी होते हैं अपने भाईयों, मित्रों और श्रीकृष्ण के साथ राज्याभिषेक के लिए नगर में प्रवेश करते हैं। आइए देखते हैं फिर क्या होता है।
कुम्भाश्च नगरद्वारि वारिपूर्णा नवा दृढाः।
तथा स्वलंकृतद्वारं नगरं पाय सिताः
सुमनसो गौराः स्थापितास्तत्र तत्र ह ॥४८॥
नगर के द्वार पर जल से भरे हुए नूतन एवं सुदृढ़ कलश अपने सुहृदों से घिरे हुए पाण्डु नन्दन के लिए रखे गये थे और जगह-जगह सफेद फूलों के गुच्छे रख दिये गए थे।
राजमहल के भीतर प्रवेश कर के श्रीमान् नरेश ने कुल देवताओं का दर्शन किया और रत्न चन्दन तथा माला आदि से सर्वथा उनकी पूजा की ॥१४॥
निश्चकाम ततः श्रीमान् पुनरेव महायशाः।
ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान् ॥१५॥
इसके बाद महा यशस्वी श्रीमान् राजा युधिष्ठिर महल से बाहर निकले । वहाँ उन्हें बहुत से ब्राह्मण खड़े दिखायी दिये, जो हाथमें मङ्गलद्रव्य लिये खड़े थे ॥ १५॥ जब सब ब्राह्मण चुपचाप खड़े हो गये, तब ब्राह्मण का वेष बनाकर आया हुआ चार्वाक नामक राक्षस राजा युधिष्ठिर से कुछ कहनेको उद्यत हुआ ॥२२॥
यहां पर हम देखते हैं कि युधिष्ठिर के स्वागत के लिए सारे ब्राह्मण समाज वहां खड़ा था और उनकी अपेक्षा के अनुरूप हीं युधिष्ठिर कुल देवताओं की पूजा करते हुए अपनी आस्तिकतावादी प्रवृत्ति को परिलक्षित करते हैं।
तत्र दुयोधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः।
साक्षःशिस्त्री त्रिदण्डीच धृष्टो विगतसाध्वसः ॥२३॥
वह दुर्योधन का मित्र था। उसने संन्यासी ब्राह्मण के वेषमें अपने असली रूपको छिपा रखा था। उसके हाथमें अक्ष माला थी और मस्तक पर शिखा उसने त्रिदण्ड धारण कर रखा था। वह बड़ा ढीठ और निर्भय था ॥२३॥
वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वाद विवाभिः।
परःसहनै राजेन्द्र तपोनियमसंवृतः ॥२४॥
स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम् ।
अनामन्त्र्यैव तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम् ॥ २५॥
राजेन्द्र ! तपस्या और नियम में लगे रहनेवाले और आशीर्वाद देनेके इच्छुक उन समस्त ब्राह्मणोंसे, जिनकी संख्या हजार से भी अधिक थी, घिरा हुआ वह दुष्ट राक्षस महात्मा पाण्डवों का विनाश चाहता था। उसने उन सब ब्राह्मणों से अनुमति लिये बिना ही राजा युधिष्ठिर से कहा ॥ २४-२५ ॥
चार्वाक उवाच इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि।
धिग भवन्तं कुनृपति शातिघातिनमस्तु वै॥२६॥
चार्वाक बोला-राजन् ! ये सब ब्राह्मण मुझ पर अपनी बात कहने का भार रखकर मेरे द्वारा ही तुमसे कह रहे हैं'कुन्तीनन्दन ! तुम अपने भाई-बन्धुओं का वध करनेवाले एक दुष्ट राजा हो । तुम्हें धिक्कार है ! ऐसे पुरुषके जीवनसे क्या लाभ ? इस प्रकार यह बन्धु-बान्धवों का विनाश करके गुरुजनों की हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है, जीवित रहना नहीं ॥ २६-२७ ॥
युधिष्ठिर उवाच प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः ।
प्रत्यासन्नव्यसनिनं न मां धिकर्तुमर्हथ ॥ ३० ॥
यहां दुर्योधन के मित्र चार्वाक का जिक्र आता है जिसे ब्राह्मणों ने राक्षस कहा है। इसका मतलब ये निकाला जा सकता है कि अस्तिकतावादी संस्कृति पर प्रहार करने वाले पुरुष को हीं ब्राह्मण उस चार्वाक को राक्षस के नाम से पुकारते हैं।
देखने वाली बात ये है कि ना तो रावण की तरह दुर्योधन की आस्था शिव जी में है और ना हीं अर्जुन की तरह वो शिव जी तपस्य करता है। ये अलग बात है कि वो श्रीकृष्ण के पास एक बार सहायता मांगने जरूर पहुंचता है। पर वो भी सैन्य शक्ति के विवर्धन के लिए। यहां पे उसकी राजनैतिक और कूटनीतिक चपलता दिखाई पड़ती है ना कि श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का भाव।
पूरे महाभारत में दुर्योधन श्रीकृष्ण को एक राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ के रूप में हीं देखता। दुर्योधन को भक्ति पर नहीं अपितु स्वयं की भुजाओं पर विश्वास है। वो अभ्यास बहुत करता है। इसी कारण वो श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का प्रिय शिष्य बनता है।
भीम और दुर्योधन दोनों हीं श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम से गदा युद्ध का प्रशिक्षण लेते हैं , परन्तु अपने अभ्यास और समर्पण के कारण दुर्योधन श्री बलराम का प्रिय शिष्य बन जाता है । ये बलराम का दुर्योधन के प्रति प्रेम हीं था कि वो महाभारत के युद्ध में किसी भी पक्ष का साथ नहीं देते हैं ।
श्रीकृष्ण भी दुर्योधन के इस अभ्यासी व्यक्तित्व के प्रति भीम को बार बार सावधान करते रहते हैं । कुल मिलाकर ये खा जा सकता है कि दुर्योधन को तो अपनी भुजा और शक्ति पर हीं विश्वास था , ना कि भक्ति पर या अस्तिकता पर। दुर्योधन नास्तिक हो या ना हो , परन्तु आस्तिक तो कतई नहीं था ।
इस संसार को हीं सच मानने वाला , इस संसार के लिए हीं लड़ने वाला , स्वर्ग या नरक , ईश्वर या ईश्वर के तथाकथित प्रकोप से नहीं डरने वाला एक निर्भीक पुरुष था।
दुर्योधन की तरह हीं वो चार्वाक भी निर्भय था तभी तो भरी सभा में वो युधिष्ठिर को अपने बंधु बांधवों की हत्या का भागी ठहरा कर दुत्कार सका। यहां देखने वाली बात ये है कि महाभारत युद्ध के अंत में उस चार्वाक की सहायता करने वाला कोई नहीं था।
उसे जरूर ज्ञात होगा कि पांडव जिसे भगवान मानते हैं, वो श्रीकृष्ण भी उसी सभा में मौजूद होंगे, इसके बावजूद वो घबड़ाता नहीं है। वो बिना किसी भय के युधिष्ठिर को भरी सभा में दुत्कारता है।
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने कहा--ब्राह्मणो ! मैं आपके चरणों में प्रणाम करके विनीत भावसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मुझपर प्रसन्न हों । इस समय मुझपर सब ओर से बड़ी भारी विपत्ति आ गयी है; अतः आपलोग मुझे धिक्कार न दें ॥ ३०॥
परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति ॥ ३३॥
वयं ब्रूमो न धर्मात्मन् व्येतु ते भयमीदृशम् ।
उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह ॥ ३४॥
ब्राह्मण बोले--धर्मात्मन् ! यह दुर्योधनका मित्र चार्वाक नामक राक्षस है, जो संन्यासी के रूपमें यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है । हमलोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं । आपका इस तरहका भय दूर हो जाना चाहिये। हम आशीर्वाद देते हैं कि भाइयों सहित आपको कल्याणकी प्राप्ति हो ॥३३-३४॥
वैशम्पायन जी कहते हैं--जनमेजय ! तदनन्तर क्रोध से आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा ब्राह्मणों ने उस पारात्मा राक्षस को बहुत फटकारा और अपने हुङ्कारों से उसे नष्ट कर दिया ॥ ३५ ॥
सपपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम् ।
महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३६॥
ब्रह्मवादी महात्माओं के तेजसे दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा, मानो इन्द्र के वज्र से जलकर कोई अङ्करयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो ॥ ३६ ।।
ऊपर के श्लोक 33 से श्लोक 36 में लिखी घटनाओं से ये साफ दिखाई पड़ता है कि उस चार्वाक का आरोप इतना तीक्ष्ण था कि युधिष्ठिर घबड़ा जाते हैं। युधिष्ठिर को चार्वाक के चुभते हुए आरोपों का कोई उत्तर नहीं सूझता है और वो ब्राह्मणों से निवेदन करने लगते हैं कि जिस प्रकार यह चार्वाक मुझे धिक्कार रहा है, उस प्रकार उन्हें धिक्कारा ना जाए।
और फिर सारे ब्राह्मणों ने मिलकर उस चार्वाक को बहुत फटकारा और अपने हुंकार से उसे नष्ट कर दिया। एक तरफ इतने सारे ब्राह्मण और एक तरफ वो अकेला चार्वाक। एक तरफ विजेता राजा और एक तरफ हारे हुए मृत राजा दुर्योधन की तरफ से प्रश्न उठाता चार्वाक।
आखिर युधिष्ठिर उसके प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं देते? आखिर अपने आखों के सामने उस अन्याय को होने क्यों दिया जब अनगिनत ब्राह्मण एक साथ मिलकर उस अकेले चार्वाक का वध कर देते हैं? जिस धर्म की रक्षा के लिए महाभारत युद्ध लड़ा गया, उसी धर्म की तिलांजलि देकर युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होता है।
महाभारत की लड़ाई दरअसल आस्तिकतावादी और नस्तिकतावादी भौतिक प्रवृत्ति के बीच की लड़ाई है। और।आस्तिकतावादी संस्कृति अधर्म का आचरण करके भी इसे दबाना चाहती थी और वास्तव में दबाया। युधिष्ठिर के राज्यारोहण के दिन अनगिनत ब्राह्मणों द्वारा एक अकेले नास्तिक चार्वाक का अनैतिक तरीके से वध कर देना और क्या साबित करता है?
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित