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गड्ढा
उस दिन हमारी दुकान की छुट्टी थी। हफ्ते में एक दिन। लेकिन उस दिन भी जाना पड़ा। वह मन में बिसूरते हुए गली में उतरकर चलने लगा।

मेरी इच्छा है कि कम-से-कम इस दिन को अपने लिए रखना है। दिनों को गिनकर सहिष्णुता खोने के बाद, धीरे-धीरे ही सातवाँ दिन आएगा। वह दिन ऐसा है, जैसे जब मैं रुककर करने की इच्छा रखनेवाले कामों को खुद में न समेट पाता और ऊपरी मंजिल के पंडाल की छाया में खाली जमीन पर, कुछ भी किए बिना, कुछ भी न करने के संतोष के साथ आकाश को देखते हुए मनोराज्य में तैरता। पिताजी या ग्राहक जब मेरे निर्णय लेते, वे तो निर्णयहीन स्वतंत्रता में झूमने के बराबर है। इसे दिवास्वप्न कहते हैं। लेकिन इच्छाएँ एवं लक्ष्य उधर ही रंगीन चित्रों की तरह चमकते हैं न! वह भी न हो तो कैसे?

ऊपरी छत की खाली जमीन पर लेटते हुए आकाश को देखने लगता हूँ। समय से अनजान होते हुए आकाश और छत तथा पौधे एवं वल्लरियों के इर्द-गिर्द घूमने वाली मेरे रक्त के रिश्तेदारों के साथ घूमनेवाली यादों से मुक्त होकर, उनके मानसी दृश्य में मैं एक नायक के रूप में घूमता हुआ, मेरे चारों तरफ सूर्य एवं चंद्र मंडल तालियाँ बजा रहे हैं। इच्छाएँ फूल बरसा रही हैं। मालाएँ गूंथते हुए, हलके बादलों को पहननेवाली स्त्रियाँ तैरकर आ रही हैं। आगे की सोचेंगे तो लज्जास्पद रहेगा। ऐसा लगेगा कि हम इस तरह अपमानित हो गए हैं। कुछ समय दुःख उमड़कर आएगा। सौभाग्यवश, मेरे दिवास्वप्न, उन रंगीन परदे के दृश्य और किसी को दिखाई नहीं देते। उसमें एक 'रील' देखने पर सब लोग मुझपर थूकेंगे। दस तरह की विधि देखेंगे तो भी काफी है, मेरे पिताजी बोलेंगे कि 'यह कुत्ता घर में रखने के योग्य नहीं है।'

(पिताजी आप जो भी सोचते हैं, वह ठीक ही है। लेकिन मेरी सारी कल्पनाएँ सच नहीं होती हैं न। मैं क्या करूँगा। बहुत नहीं। सवा भाग सच हो जाए तो भी काफी है...बाद में एक शब्द भी मैं नहीं गुनगुनाऊँगा। आपके बारे में, माँ के बारे में न ईश्वर के बारे में काम करते समय यदि मैं संतुष्ट रहता तो ईश्वर के रहने या न रहने से क्या-एक शब्द भी न गुनगुनाऊँ। हँसी के साथ कंधा दूंगा। सवा भाग सच हो तो काफी है पिताजी, खाली सवा भाग) एक दिन पूरा मेरा हाथ लग जाएगा; पूरा एक दिन मेरे हाथ लगे तथा इस चिंता में यदि मैं धीरे-धीरे खोता जाता तो क्या पिताजी के लिए सह्य होगा? छुट्टी के दिन रक्त और मांसपेशी सहित घर में बैठने में। क्या कोई अर्थ नहीं है। "जा रे, जाकर उस सेलम की गठरी को तोड़कर दाम लगाना।"

मुझे बहुत कष्टप्रद लग रहा था। वह कोई उतना बड़ा काम नहीं था। बिक्री के लिए उन वस्तुओं की उतनी आवश्यकता भी नहीं थी। अगले दिन या उसके भी अगले दिन डाल सकते हैं। आधे घंटे में यदि उचित सहायक हो तो और भी कम समय में कर सकनेवाला काम। यदि उसे पर्याप्त मानें तो मैं घर ही रहूँगा। मैं चुप रहँगा तो भी दोष नहीं है। मैं चुपचाप भी नहीं रहता था। वही पिताजी के लिए कष्टप्रद है। अपनी किताबों की अलमारी को ठीक कर रहा हूँ। जमीन पर फैली हुई पुस्तकें देखकर पिताजी को कुछ हो जाता है। यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी बात उन्हें इतने बड़े दुःख में डाल देती है या कोई साहित्यिक मित्र मुझे ढूँढ़ते हुए आ जाता है। कमरे में ही बंद होकर, अँधेरा छा जाने के बाद भी बत्ती न जलाते हुए, अत्यधिक लहरी के साथ उन्मत्त होकर बातें कर रहे थे। अकसर दोस्त बाहर 'बीड़ी' पी लेता था। बातें करना, बातें करना। माँ-बाप से लेकर छोटा बच्चा तक यह पूछता है कि पता नहीं ये क्या-क्या बातें करेंगे। कोई भी इस प्रश्न के लिए सही उत्तर भी नहीं देता। ऐसे ही मेरे दोस्त के न आने पर भी वह ऐसा नहीं करता-माँ को ढूँढ़कर चला जाता हूँ। उसके खाट के कोने में चिपककर, नोबल पुरस्कार को छीननेवाले मेरे उपन्यास की कहानी को मैं बताता तो वह रुचि लेकर सुनती थी। उस जगह पर बड़ी बहनें, छोटी बहन, बड़ी बहनों के बच्चे सबके साथ बोलकर हँसते एवं मजाक करते हुए, मैं एक कथानायक की तरह जब चमकता रहता, तब पिताजी अकेले कमरे में अकेलेपन से पीड़ित होकर पहले ही पढ़ी हुई 'हिंदू' पत्रिका को बार-बार पढ़ते हुए, कुरसी पर बैठते हुए, फिर बरामदे में विचरण करते हुए-बाप रे! एक छुट्टी के दिन के कारण कितनी समस्याएँ उठती हैं!

"जा रे जाकर सेलम की गठरी को तोड़कर दाम डालो।'' पिताजी कहते हैं।
"मधुक्कुंजु को आने के लिए कहा...