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आयना
हर रोज़ की तरह उठ तो गया था मैं वही सुबह की मीठी हवाओं के बीच अपने हाथ में चाय का गिलास पकड़े माँ की बातों में ग़ौर फ़रमा ही रहा था कि अचानक से पापा को आते देख चाय का गिलास छोड़ माँ के कामों में हाथ बटाने लग गया।
पापा को पता तो था मेरे नकारेपन का पर माँ सब सँभाल लेती।इसी क्रम में मेरी दिन की शुरुआत आगे बढ़ चली थी।निकल पड़ा था बाज़ार को माँ से पैसे लेकर यारों के संग उनकी यारीं निभाने ख़ूब मस्तीं कर लौट घर लौट ही रहा था की रास्ते में इक बेटे को अपने बाप को भला-बुरा कहते सुना।मैं जरा सा रुक के उस बूढ़े शक्स की ओर चला गया तो उन्होंने रोते हुए मुझ से कहा कभी भी अपने पिताजी से आँखें मत चुराना।मैं उस वक़्त उनकी बात समझा तो नहीं और मैं घर लौट आया ।माँ ने शाम की चाय का इंतजाम कर लिया था पिताजी के लौटने का भी वक्त हो चला था।मैं जब पिताजी को चाय का गिलास देने गया तो मैंने ख़ुद को आयने में देख उस बुजुर्ग की बात को याद कर पिताजी के साथ दो मिनट के लिए बैठ गया ।मुझे देख पिताजी ने कहा जरा मेरे पैरों की मालिश कर दे आज काफ़ी पैदल चला हूँ,मैं मालिश कर ही रहा था की पिताजी के पैरों की सूजन देख असहज हो गया । फिर लौट आयना देखा और सोचा की पिताजी की कमाई हुई दौलत को मैंने कैसे मज़ाक़ बना दिया हैं । आयना न हो तो शक्स कभी अपने अन्दर न झाख सकता।


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