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आत्म संगनी का नामकरण संस्कार

आज अनायास मन व्यथित था,व्याकुलता कहें या मन में मची उथल पुथल। ऐसे समय में मुझे मेरी आत्म संगनी का मेरे प्रति बढ़ता समर्पण मेरे उद्वेलित कर रहा था।
वोह मेरे जीवन में और मैं उसके मन मंदिर में इस तरह समाहित हो चुके हैं कि चाहकर भी हम अपने आपको उससे प्रथक कर नही पा रहे थे।
जीवन के इस मोड़ पर जहां में अपने भावी जीवन के प्रति आशंकित हो रहा था और चाह रहा था कि मेरे न होने से मेरी आत्म संगनी के जीवन में आघात न हो।इसी आशा से में यह चाह रहा था कि उसको पीड़ा दिए बगैर अपना दामन छुड़ा लूं,मैने यह प्रयास किया परंतु मेरी आत्म संगनी की हठ धर्मी स्वभाव ने मुझे निर्णय पर पुनर्विचार पर विवश किया।
आज उसकी खुशबू उसकी चाहत के आगे मैं नत मस्तक हो गया और आज तक जिस विभूति को कोई नाम नहीं दिया उसे मैने *अनामिका* नाम देकर अपने आप को सौभाग्य शाली महसूस कर रहा था।कल तक की एक अंजान सी कब प्रियसी,अंतरात्मा तक समाहित होते हुए हृदय पटल पर अपना स्वत्व स्थापित कर चुकी थी और अब उसका नामकरण होने से एक नए आयाम का आरंभ हुआ।

में अपने इस अधूरे आत्म समागम रूपी संबंध को परिभाषित करने में असमर्थ मेहसूस कर रहा था आज उसकी जठितला का आभास मंत्र मुग्ध किए जा रहा है।

कल हमारे इस नवीन संबंध को दो माह का समय गुज़र रहा था। इस अंतराल में हम एक दूसरे के मन मस्तिष्क में उतर चुके थे।अपनी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के बावजूद हमारा एक दूसरे के प्रति समर्थन,स्नेह और उससे सब से अधिक हमारे बीच उत्पन्न पारस्परिक संबंध ,विश्वास और संबंधों की अनुभूति अविस्मरणीय बनाती बड़ा अभूतपूर्व योगदान प्रदान कर रहा था।

समाज की नज़र से दूर हिमालय की ऊंचाइयों से भी अधिक ऊंचा,समंदर की गहराइयों से अधिक गहरा और अंतरिक्ष की भूल भुलैया भरी दुनिया की सत्यता से अधिक अटल बनता हमारा यह आत्मीय संबंध अपने उत्कृष्ट स्थान को ग्रहण कर चुका था।
में आज फिर अपनी आत्म संगनी के आगे निशब्द था जब उसने कहा "जान हम पहले जैसे ही रहेंगे तुम्हारे निर्णायक निर्णय अपने पास रखो,मेरे थे,मेरे हो ओर हमेशा मेरे रहो।।में तुम पर बोझ नहीं तुम्हारी आत्म संगनी हूं,तुम्हारी प्रियसी अंतरात्मा तक समाहित हो चुकी एक अंतहीन कथा हूं।

© SYED KHALID QAIS