...

0 views

शान्ति से क्या होता है?
*शान्ति क्या है? शान्ति से क्या होता है?*

हम सभी चाहते हैं कि हमारे घर परिवार में, हमारे मन में शान्ति हो। विश्व में शान्ति हो। विश्व शांति स्थापना करना हमारा मूल उद्देश्य है। राजयोग और श्रेष्ठ आदर्श व्यवस्था के दृष्टिकोण से भी हमारा मूल विषय ही "शान्ति" है। इसलिए हम ज्यादातर चर्चा शान्ति के विभिन्न पहलुओं की ही करते हैं। हमारा मूल उद्देश्य "शान्ति" क्यों है? यूं तो आत्मा के सभी गुण उसके प्राकृतिक स्वभाव (प्रकृति) से उत्पन्न होते हैं। हम प्रकृति के त्रिगुणात्मक अदृश्य और मूक खेल को समझें। वैसे कुदरत और कुदरत की सूक्ष्म प्रक्रियाओं को समझना भी अत्यंत कठिन काम है। फिर भी हमारे युग दृष्टाओं अर्थात् अंतर्दृष्टि की धनी आत्माओं के द्वारा कुछ हद तक इसे समझने का प्रयास किया जाता रहा है। परमात्मा शिव ने भी इस विषय पर बहुत प्रकाश डाला हुआ है।

यह प्रकृति त्रिगुणी है। प्रकृति के सत, रज और तम तीन गुण हैं। हमारा जीवन भी मूलतः प्रकृति की दृश्य और अदृश्य ऊर्जा से संचालित है। मानसिक, शारीरिक और तात्विक ऊर्जाओं का असंतुलन भी आंतरिक और बाहरी अशान्ति पैदा करता है। प्रत्येक आत्मा के इन तीन गुणों का अंतर्निहित अनुपात उनका अपना अपना और अलग अलग होता है। इसका अनुपात काल देश और परिस्थिति के अनुसार बदलता भी रहता है। जैसी जिसकी प्रकृति होती है वैसे ही गुण उसके जीवन में प्रैक्टिकल धरातल पर प्रकट होते जाते हैं। जहां तक शान्ति के सद्गुण का सवाल है। यह गुण प्रकृति के सतोगुण से उत्पन्न होता है। यदि किसी भी आत्मा में सतोगुण का अनुपात ज्यादा प्रतिशत में होता है तो उस आत्मा में स्वभावतः ही प्रैक्टिकल शांतचित्त स्वभाव की स्थिति ज्यादा प्रतिशत में होती है। ऐसी आत्माएं अन्य आत्माओं से तुलनात्मक रूप से ज्यादा शान्तप्रिय होती हैं।

शान्ति क्यों जरूरी है? "शान्ति" के गुण से ही अन्य दैवी गुण सद्गुण भी उत्पन्न होते हैं। कैसे? जरा कल्पना कीजिए। यदि मानसिक स्थिति अशांत है तो क्या किसी सद्गुण या आत्मिक गुण का अहसास किया जा सकता है? नहीं, कदापि नहीं। मन के धरातल की झील में जो संवेदनाओं और अनुभवों के प्रतिबिंब बनते हैं, वैसे ही गुण या शक्तियों के अनुभव हमें होते हैं। यदि मन की झील में अशांति है अर्थात् हलचल है तो उसमें सद्गुणों के प्रतिबिंब ठीक तरह से स्पष्ट नहीं बन सकते हैं। इसलिए ऐसी अशांत मानसिक अवस्था में सद्गुणों के अनुभव भी नहीं हो सकते हैं। इसलिए ही सभी गुणों के प्रकटीकरण की दृष्टि से "शान्ति" आधारभूत और प्रथम गुण है। इसका अर्थ यह हुआ कि सर्व गुणों के प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए "शान्ति" का गुण आधारभूत गुण है।

इसे दूसरी तरह से समझें तो हम कह सकते हैं कि चैतन्य शक्ति आत्मा का आदि स्वरूप है ही शान्ति। शान्ति या अशांति का विषय मन के धरातल का विषय है। वैज्ञानिकों ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि हमारा मन जाने अनजाने में जागृत और सुषुप्त अवस्था में कम या ज्यादा गतिशील रहता है। इस अर्थ में मन का गतिशील रहना प्राकृतिक है। इसलिए ही सम्पूर्ण शान्ति की बात जीवन में रहते हुए नहीं कही जा सकती है। सम्पूर्ण शान्ति की अवस्था सिर्फ सम्पूर्ण मनमनाभव की स्थिति में होती है। इसलिए इस अर्थ में "सम्पूर्ण शान्ति" जीवन में रहते हुए संभव नहीं है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि विश्व में या हमारे जीवन में शांति नहीं आ सकती है। नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है। शान्त स्वरूप की अवस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें वैचारिक स्तर पर व्यर्थ विचार अत्यंत न्यून अर्थात् नहीं ही के बराबर होता है। शान्ति की आधिक्य प्रतिशत की ऐसी अवस्था से सतोगुण और सुख ही बढ़ता है। जीवन उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर होता है। जबकि जब मानसिक विचारों का आधिक्य प्रतिशत हो जाता है तो उसे ही हम अशांति कहते हैं। अशांति की अवस्था से सभी विकार या विकृतियां पैदा होती हैं। अशांति की अवस्था से ही अवगुण दुर्गुण या विकार पैदा होते हैं। शान्ति की अवस्था से कदापि कोई दुर्गुण या विकार पैदा नहीं हो सकते हैं। शान्ति की स्थिति की पराकाष्ठा को ही जीवन की शान्ति या विश्व शांति की अवस्था कहा जाता है।

राजयोग का अभ्यास करना क्यों जरूरी है? क्योंकि राजयोग से मानसिक शान्ति की पराकाष्ठा की स्थिति को अनुभव किया जा सकता है। इस शान्ति की ऐसी पराकाष्ठा की स्थिति से आत्मिक आनन्द स्वरूप की अवस्था का अनुभव कर सकना संभव होता है। आत्मिक आनन्द स्वरूप की स्थिति से परमात्म अनुभव कर सकना सम्भव होता है। कुल मिलाकर भावार्थ यह हुआ कि जीवन विकास के विज्ञान का कोई भी क्षेत्र हो, शान्ति के गुण के प्रतिशत को बढ़ाना अत्यंत अनिवार्य होता है। जो आत्माएं शान्ति को बढ़ाने की साधना पुरुषार्थ करती हैं। ऐसा समझो जैसे कि वे आत्माएं सभी गुणों के पैदा होने की भावभूमि अर्थात् पृष्ठभूमि तैयार करती हैं। एक बार पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है तो उसमें सद्गुणों के सुमन पल्लवित पुष्पित सहज ही हो सकते हैं। इसलिए ही ज्ञानियों का सदा से जोर इसी बात पर रहा है कि हजार काम छोड़कर सर्वप्रथम योग राजयोग साधना कर लेनी चाहिए। बाकी जो भी इस राजयोग की शांतचित्त स्थिति की पृष्ठभूमि पर प्रस्तफुटित होगा वह सब शुभ ही शुभ और सृजनात्मक ही होगा। कृपया यह स्मृति रहे। निश्चय पूर्वक और विधिपूर्वक योग या शान्ति की स्थिति अकर्मण्यता कतई नहीं है। हमें ऊपर ऊपर से देखने से यह अकर्मण्यता लगती है। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है। बल्कि यह तो कर्मण्यता और कर्मण्यता की आधारशिला होती है। ही who is able to see action in inaction and inaction in action is most intelligent one.

*" The writing is also a struggle against peace." Even then the writing is also meant to be a necessary struggle to be in peace and for bringing peace in the life's of others. BK Kishan Dutt, Freelance writer**