...

1 views

व्यावाहरिकता V/S वास्तविकता
आजकल लेखन छूट-सा गया है पर यह का यकायक कुछ अनुभव अनायास ही इस कदर छा जाते हैं कि भावों से शब्दों में व्यक्त करना जरूरी-सा लगता है!
गत्त कुछेक महीनों से लॉक डाउन के चक्कर में बाहर आना जाना बंद सा था परंतु बीते शुक्रवार बैंक संबंधी आवश्यक कार्य होने से काफी समय बाद बाजार दर्शन हुआ ।
तो अब बताती हूं मेरे कल की कुछ घटनाओं का अनुभव, जिन्हें शब्दों में उकेरने के लिए यह कलम चल पड़ी ।

1️⃣ पहला वाक्या है- एटीएम के केबिन में पांच व्यक्ति, जबकि बाहर स्पष्ट मुद्रित उल्लेख कि ग्राहक एक-एक करके अंदर जाएं, माना भीतर दो एटीएम है तो अधिकतम दो व्यक्ति जाएं यह तो हुआ, नियम !
पर पांच-पांच लोग, वो भी इस कोरोना काल में । खैर मुझे बाहर खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करना ठीक लगा । परंतु हद तो तब हो गई जब मुझसे बाद में आया व्यक्ति गेट खोल भीतर जाने का प्रयास करने लगा, मैं चौंकी कि आखिर इस तरह मेरा नंबर तो आएगा ही कैसे ?
मैंने तुरंत रोका... भाई साहब पहले से तो इतनी भीड़ है ऊपर से मैं यहां आप से भी पहले खड़ी हूं, ये क्या बात हुई तो उनके शब्द सुनिए "एक निकला है तभी जा रहा हूं" तो मैंने कहा आप अंदर भी जरा देखिए इतने से केबिन में पहले ही चार लोग हैं जरा उन्हें तो आने दीजिए और वैसे भी लिखा हुआ है एक-एक ग्राहक ही जाएं।
तो उनका तर्क था कि गार्ड तो नहीं है, मैंने आश्चर्य से उनकी ओर देखा और कहा --
-- गार्ड नहीं तो हम नियम ना माने ??
खैर कोई जवाब बनते ना देख वह बोले- "मैडम आप जाइए पहले, निकाल लीजिए पैसे" यह कहकर महिला सम्मान को दर्शाते हुए मानवीयता दिखाई उन्होंने ।
🤔 परंतु सोचने वाली बात यह है, यही है वास्तविकता हम नियमों का उल्लंघन सरेआम करते हैं और हममें से अधिकतर लोग उनकी अनदेखी कर अवहेलना को प्रोत्साहित भी करते हैं ।

वाक्या एक और 2️⃣ भी है, तो उसके बाद हम गए बैंक के डिपॉजिट काउंटर पर जहां मैंने जमा पर्ची, चेक के साथ दी तो श्रीमान ने मुझे प्रतिपर्ण हाथों-हाथ फाड़ लौटाते हुए कहा कि यह आप अपने पास रखिए मानों, मुझे मालूम है ना हो..।
मैंने यकायक कहा- परंतु सर, क्या आप मोहर लगाकर नहीं देंगे? मेरे इतना कहते ही उन्हें फिर सील याद आई या क्या हुआ, तुरंत Received की सील लगाकर देकर बोले यह लीजिए, पर ट्रांसफर में 3 दिन लगेंगे । अब यह तो नहीं पता कि ये फिर पहले क्यों न लगाई,
क्योंकि चेक रेखांकित ही था, जालसाजी का सवाल ही ना था।
मुझे तो बात यहां भी नियमों में ढ़िलाई की लगी। कौन देखता है और कौन कहेगा ? यह सोच कर संभवतः उन कैशियर महोदय ने मुझे रिसिप्ट बिना सील लौटाई , खैर मैंने कहा भी और लगवाई भी ।
नियम बराबर चलते रहें , उसका सुकून था मुझे ।

उपरोक्त दोनों ही वाक्ये दर्शाते हैं कि -- हम नियमों को मानना, उन पर चलना ही नहीं चाहते । आए दिन हम निंरतर ऐसे ही ...
..... आए दिन हम निरंतर ऐसे ही अपने चंहु ओर उन नियमों की अवहेलना करते हुए दिखते हैं, जो अंततः मानव हित को मध्य रख बनाए गए हैं।
फिर चाहे वह वह प्लास्टिक बैन के बावजूद भी हर दुकान पर धड़ल्ले से प्लास्टिक बैग का उपयोग हो, या फिर यातायात नियमों की लापरवाही ।
छोटे से बड़ा हर तीसरा आदमी इसी तरह व्यवहारिक नियमों की धज्जियां उड़ाता हमें दिखता हैं और हम लोग मूक दर्शक की भूमिका निर्वाहित कर उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करते हैं, अभिप्रेरित करते हैं ।
अब आप कहेंगे कि हम क्या करें ? जब सब यही कहेंगे तो आखिर करेगा कौन ??
मैं विभिन्न दुकानों पर पैकिंग के समय , "भैया प्लास्टिक नहीं, प्लीज !" कह कर आ चुकी, पर अगली बार वापिस मुझे नहीं तो किसी दूसरे को वहीं इसका उपयोग करते देख अजीब-सा मन हो चलता है एक के कहने से तो ना पता, पर यदि सब यही कहने लग जाएं तो दुकान वाला शायद पॉलिथीन लाना ही बंद कर दें, पर हम कहते ही नहीं ।

🙏 इसी तरह मेरा निवेदन सिर्फ इतना-सा है कि आपके चारों और कहीं कोई मनमानी दिखें, जनहित में बनाए नियमों का उल्लंघन हो रहा हो, छोटा बड़ा जैसा भी हो, एक बार संबंधित व्यक्ति को विनम्रतापूर्वक समझाने का प्रयास अवश्य करें।
मैं मानती हूं प्रथम दृष्टया विरोध संभावित ही है परंतु यदि आपके तर्क यथार्थ और व्यावहारिकता से भरे होंगे, तो निश्चय ही ...

.... निश्चय ही आपकी बात अगले को एक बार पुनः विचार करने पर विवश कर पाएगी।

नैतिकता से ही नियमों का पालन पूर्णतः संभव है, दंड रूपी डंडा दागने से विवश व्यक्ति यदि वही चीज नैतिकता से सरोकार रखते हुए करें, तो संभवत आगे कड़ियां जुड़ती रहे और हम एक सभ्य समाज के निर्माण में योगदान दे पाएं, जो केवल बातों में, नियम बनाने में ही नहीं बल्कि पूर्ण मनोयोग से उन्हें अपनाने पर भी जोर दें और इस वास्तविक व्यवहारिकता को समझें ।
🙏
©Mridula Rajpurohit ✍️
🗓️ October, 2020
© All Rights Reserved