...

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मेरी नासमझी, और कोई अज़ीब-सी तलाश
हाँ, आज मैं अपने दिल के हर कमरे के
दरवाज़ों को खोलकर
बस में बैठे हुए खुली खिड़कियों के बाहर देख रहा था, कि
उसका घर कब आ गया पता ही नहीं चला,
और उसने
उसने उतरते वक़्त मुझसे मुस्कराते हुए पूछ ही लिया, कि
'अरे ओए जय, तुम सारे रस्ते खिड़कियों के बाहर ही झांकते रह जाओगे क्या???'
ज़वाब में हमेशा की तरह मैंने इस बार भी अपने लबों को गालों के दोनों ही तरफ़ ज़रा खिसकने की इजाज़त दी, और
थोड़ा मुस्कुराया...
फिर मैंने कहा कि, 'मिल जाए अगर कोई, तो वो ही देख रहा हूँ'
बदकिस्मती से उसने सुना नहीं, या फ़िर शायद समझ ही नहीं सकी कि मैंने कहा क्या, और
दोबारा मुझसे पूछा -
'क्या कहा?', और मैंने इसबार 'कुछ नहीं' कहकर टाल दिया और वो मुस्कुराकर चली गई....
दरअसल मैं किसी तलाश में था,
तालाश ऐसी कि शायद उसके जैसी कोई तो दिख जाए, क्यूंकि
मुझे याद है बख़ूबी, कि
वो अक्सर मुझसे कहती है कि
'अरे मुझमें ऐसा ख़ास ही क्या है, तुम्हें मुझसे लाखों गुना और अच्छी लाखों मिल जाएंगी'
और, मैं किसी नासमझ की तरह उसकी कही उन बातों में आकर किसी और की तलाश करने की मुसलसल सारे रस्ते नासमझी कर रहा था, और
और आख़िर में मुझे ये पता चल ही गया कि असल में बहुत झूठी है वो तो, और
मैंने उसी पल मुस्कराते हुए अपने दिल के दरवाज़ों और बस की खिड़कियों, दोनों को ही बन्द कर लिया, क्यूंकि
मुझे उन्हीं रस्तों ने, जिन्हें मैं घण्टों से देख रहा था खिड़कियों को बंद करने से पहले ही उसने मुझे बता दिया था, कि
"अरे पगले झूठ कह रही है वो तुझसे, बेकार ही तू उसकी बातों में आ रहा है...
उसके जैसी तुझे इस जहान में तो छोड़,
परी लोक में भी मिलेगी, मुमकिन ही नहीं है "

© Kumar janmjai