मेरी नासमझी, और कोई अज़ीब-सी तलाश
हाँ, आज मैं अपने दिल के हर कमरे के
दरवाज़ों को खोलकर
बस में बैठे हुए खुली खिड़कियों के बाहर देख रहा था, कि
उसका घर कब आ गया पता ही नहीं चला,
और उसने
उसने उतरते वक़्त मुझसे मुस्कराते हुए पूछ ही लिया, कि
'अरे ओए जय, तुम सारे रस्ते खिड़कियों के बाहर ही झांकते रह जाओगे क्या???'
ज़वाब में हमेशा की तरह मैंने इस बार भी अपने लबों को गालों के दोनों ही तरफ़...
दरवाज़ों को खोलकर
बस में बैठे हुए खुली खिड़कियों के बाहर देख रहा था, कि
उसका घर कब आ गया पता ही नहीं चला,
और उसने
उसने उतरते वक़्त मुझसे मुस्कराते हुए पूछ ही लिया, कि
'अरे ओए जय, तुम सारे रस्ते खिड़कियों के बाहर ही झांकते रह जाओगे क्या???'
ज़वाब में हमेशा की तरह मैंने इस बार भी अपने लबों को गालों के दोनों ही तरफ़...