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अवकाश और वजूद – एक कल्पना
देर रात मेरी नींद खुद गई। बदन पसीने से लथपथ था।मन विचलित था और बार बार ये संकेत दे रहा था जैसे मुझे कोई देख रहा हो। सांसे फूल गई थी। घबराहट और बेचैनी की कोई सीमा नहीं रही थी। मेने एक नजर आसपास की, कोई न था। कमरे से बाहर निकल पानी पिया और फिर बिना ज्यादा सोचे फिर से सोने की कोशिश की। कुछ ही देर में फिर से आंख लग गई कि और फिर से मुझे महसूस हुआ जैसे कोई मेरे करीब आ रहा है। मैं अपने विचारो को काबू कर नींद की लहरों में समा गई। मेरे मन ने फिर से बताया मुझे कि किसीने सर पर हाथ रखा है। लेकिन नींद की गहराई से मैं वापस आ ना पाई और सब ख्याल अनदेखा कर नींद के अंदर समाती गई।

हररोज से विपरीत आज मेरी सुबह जल्दी हो गई थी।बिस्तर पर होते हुए भी आंखे फिर से बंद नहीं हो रही थी। हररोज ही खुद की चद्दर में खुद ही उठाती हू। आज वोह चद्दर भी नही थी। मैं उठकर बाहर निकली। रसोई में से गर्मागर्म खाने की खुश्बू बाहर तक आ रही थी। तभी मम्मी की आवाज आई: “आ गई बेटा, आ आके नाश्ता कर ले।” मेने मन ही मन हां कहकर वाशिंग बैश की तरफ बढ़ी। मेरा ब्रश नही था वहा पर तो मम्मी को आवाज दी : “मम्मी ब्रश कहा है मेरा? ”मम्मी ने कुछ न कहा। मैं पूछने के लिए रसोई की ओर बढ़ी तो मम्मी मुझे ही नाश्ता करा रही थी। दिल ने एक जटके में अनगिनित बार धड़कने ले ली और दिमाग अच्छे बुरे ख्यालों से भर गया। मैं सुन होके खड़े रहने की क्षमता खो चुकी थी। और सर हर संभव दिशा में चकराने लगा।

तभी मम्मी की आवाज ने मुझे होश में...