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शायद..!!
हम दोनों ही ख़ामोश बैठे थे, शहर के एक छोटे लेकिन हम दोनों के ही पसंदीदा रेस्त्रां में ए सी के चलने की आवाज भी बहुत ज्यादा लग रही थी। कितना कुछ अन्तःकरण में था मेरे, "आज ये बोलूंगा.. वो बोलूंगा, जब वो मिलेगी मुझसे".. पर अब.. जब शहर के इस शांत रेस्त्रां में प्रिया मेरी आंखों के सामने बैठी थी, उसकी निश्छल आंखों की गहराइयों ने जैसे मेरी हर शिकायत को मुझसे छीन लिया हो.. चुपके से, मुझे कुछ भी याद नहीं रह गया था, जैसे कुछ भी न हो मेरे पास कहने के लिए.. कोई शिकवा, कोई शिकायत ...कुछ भी नहीं। उसकी पवित्र आंखों में कितनी गहराई, कितना ठहराव था, लगा जैसे बस वो यूं ही बैठी रहे, और उसकी शांत गहरी आंखों में जहां एक अजीब सी शान्ती थी, पवित्रता थी, बस उस पवित्रता और शान्ती को महसूस करता रहूं। जीवन के उधड़े हुए तानों बानों से व्यथित मन के लिए भला इस से बेहतर क्या था ? जैसे किसी प्यासे को तपते मरुस्थल में मीठे नीर का कोई श्रोत मिल गया हो।
कितना अजीब होता है ये अंतर्मन भी न, कितना नटखट और गतिशील जिसे हम कई बार चाह कर भी उसपर बंदिश नहीं लगा पाते हैं.. पर इस शांत और गहरी निश्छल आंखों के सामने ये अंतर्मन भी कितना स्थिर हो गया था, जैसे उसे भी इसी पवित्रता और शान्ती की तलाश थी । अचानक वेटर की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की, "क्या लेंगे सर ?" वो हमसे ऑर्डर चाहता था, मैंने प्रिया की तरफ देखा.. हमेशा की तरह, वो धीरे से मुस्कुराई.. जैसे उसे मेरी इस गतिविधि का पहले से पता हो, उसे पता था... ये खाने का मीनू मेरी समझ में नहीं आता, ये काम उसे ही पूरा करना है.. आज भी, हमेशा की तरह। उसने ऑर्डर दे दिया, पर मेरी पसंद का। मन ने फिर शरगोशी की... कितना खयाल था उसे, मेरी इच्छाओं का, मेरी छोटी छोटी पसंद का, मुझे खुद पर गर्व हुआ, जैसे मैं उसकी दुनिया का राजकुमार...