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Do Shahar

दो शहर

सुनो की ये क़िस्सा एक हैवान रात का है, ये क़िस्सा एक शैतान हालात का है,
किसी घर में एक परिवार हर रोज़ रिसता है, पिसता है, घिसता है,
ये घर एक दर्दनाक जज़्बात का है, और ये क़िस्सा उसी अंधेरी कायनात का है।

उस ख़ामोश बद हाल शहर के अगणित मकानों में,
एक गली है, जो सुबह शोर, और रात बेहोशी में सोता था,
ये घर उसी गली की सुनसान हसरतों में जीता था।

गंदी नालियों से उठी बदबू सुबह की अगरबत्ती की धुएँ से जब जा मिलती थी,
तो नर्क और स्वर्ग एक ही हों, ऐसा आभास होता था,
एक अजीब सी मायूसी जैसे पसरी हो चारों तरफ़, ये एहसास बेबाक़ और साफ़ होता था।

एक मकान क़ायम थी इस शहर में इस कदर, जैसे अजगर ने आम हँसी को बांध रखा था,
था नहीं कोई भी कामयाब इस शहर में,
इस शहर के हर घर में सिर्फ़ एक कामयाब नाकाम रहता था,
जो सुबह उठते ही अपने काम पर निकलता था और देर रात थक हारकर,
पैंतीस रुपए के दो देसी ठर्रे की भभक लिए अपने घर वापस लौटता था।

इसी सस्ते नशे में पूरा शहर हर रात हँसता और रोता था,
और कभी कभी तो मौत का नंगा नाच होता था।

ये लाचार शहर किसी कारख़ाने में तपता था, किसी की ड्राइवरई करता था, किसी की रखवाली तो किसी की सलामती करता था,
कोई गोश्त का कारोबारी था, तो कोई अफ़ीम का,
कोई चाय तो कोई दुआएँ, कुछ ना कुछ तो बेचता था।

कोई सिलाई तो कोई कट्टे का जानकार था,
ये शहर आमूमन जानता तो हर कुछ था, पर हुज़ूर सब बेकार था।

सब बेकार था पढ़े-लिखे महानगर के चश्मों में, जहां हर रोज़ ये शहर कमाने जाता था,
कभी ‘सर’ से गालियाँ तो कभी जूते कि बरसात खा कर वापस आता था,
हर कुछ जो वो जानता था, इस चका-चौंध वाली सूट-बूट-स्कर्ट की दुनिया में वो नाकाम था।

वो शहर समाज का निचला हिस्सा था, जो अपार्टमेंट के पीछे स्लम में रहता था,
इस शहर के हर जिस्म पर एक निशान था, हर निशान का एक हिसाब था।

ये निशान ब्लेड के थे, चाकू के थे, काँच के थे, डंडे और तमंचे के थे,
ये निशान आँखों के नीचे थे, बदन के पीछे थे, जवान और पके गालों पे थे,
कान पे थे, नाक पे थे, घुटने और पसलियों में थे,
सख़्त सीने और कोमल छातियों पे थे,
ये निशान रंजिश, कलह, ईर्ष्या, जलन, इज़्ज़त, और कभी-कभी तो सिर्फ़ फोकट के थे,
ये निशान, जले सिगरेट के थे।

ये निशान क्या थे?
ये निशान गवाह थे की जब सीने कि तड़प एक अंगार बन जाती है,
ग़ुस्से की पेट्रोल जब उसे लहकाती है,
आनन-फ़ानन में जब एक ज़रूरतमंद सामान हथियार बन जाती है,
और चल पड़ती है एक लकीर खींचने, सीने की लहू चली आती है जिसे सींचने,
जो रोज़ उसे हलाल करती है, दूसरी जिस्म तो सिर्फ़ एक आयीन होती है,
जिसमें वो अपने दर्द को देख सके, और याद कर सके,

कि जब आवारा हसरतों ने उसका मज़ाक़ बनाया था,
कुछ बदचलन लड़कों ने उसकी बहन पर नज़र जमाया था,
कि उसके पति ने एक महरूम औरत को अपनाया था,
की नशे ने उसे इतना मजबूर कर दिया था, बे खबर कर दिया था,
कि जेब काटना उसका पेशा बन गया था,

फ़्लाइओवर के नीचे, उस गंदे नाले पर जो लड़ाई हुई थी,
वहाँ हेरोयीन और इंजेक्शन से सिंचाई हुई थी,
और वो नशा इतना ज़बरदस्त था, उसका उतरना उतना ही बड़ा कष्ट था,
तभी तो उसे रोज़ पाने के लिए, वो शहर में ब्लेड और चूरी लिए घूमता था,
क्योंकि उस शहर में तमन्ना सिर्फ़ क़श था,
ये शहर यूँ मदमस्त था, कि समय यहाँ खुद ग़श्त था।

इस अफ़रा-तफ़री के तरानों में देर रात, एक बाप अपने घर आया,
अपनी पत्नी और तीन बच्चों को सोता पाया,
तीन बच्चे जो सयाने थे, एक भाई और दो बहन, सब मिलकर घर चलाने में हाथ बँटाते थे।

सारा परिवार इस अढहल गली के नापाक हवा में हर रोज़ एक कोशिश करता था,
बचते-बचाते, घर चलाते, इस जहन्नुम से दूर बस जाने के ख़्वाब देखता था,
पाई-पाई जोड़कर इस परिवार ने टीवी, फ़्रिज ख़रीदा था,
अपने ख़्वाहिशों की क़ुर्बानी दे, पूरे परिवार की ख़ुशहाली लेकर चलता था।

इसी परिवार की अगरबत्ती सुबह एक नया विश्वास बिखेरती थी,
क्या हुआ अगर सारी दुनिया गंदी है, हम मेहनत से अच्छाई कमाएँगे, ये सोचती थी,
उस बाप को फ़क्र था अपने परिवार पर, ज़िंदा था वो असंख्य बार हार कर।

उस रात जब वो लौटा था कुछ अलग होकर लौटा था,
शायद उस शहर की ज़हरीली हवा को पीकर आ रहा था वो,
जैसे यमराज़ से खुद मिलकर आ रहा था वो,
लौटा था वो तेज़ाब लिए, एक काँच की बॉटल में,
फेंक आया था होशों-हवाश को जोदख़ में।

सीने में एक हसीन बेचैनी लिए बढ़ रहा था वो,
किसी घनघोर-मूसलाधार बारिश सा चल रहा था वो,
जैसे तेज़ाब की फ़ितरत, काँच से निकल उसकी नसों में जा रही हो,
और सब कुछ राख करने की उम्मीद जैसे उसके सीने से तेज़ाब में जा रही हो।

उसके मंसूबे तेज़ाब के बुलबुले में देख सकता था मैं,
ये ज़िल्लत अब और नहीं, क़िस्सा आज निपटाने का है, वो हाथ देख सकता था मैं।
कि दरवाज़े के चौखट तक एक बार उसकी उँगलियाँ थोड़ी फिसली ज़रूर थीं,
जैसे इस हैवान से छूट जाना चाहती हों,
और फिर बड़ी ज़ोर से काँच की गर्दन को दबोच लिया था,

उसकी ललाट से टपकी पसीने की एक बूँद ने जो आख़िरी कोशिश की थी,
इस आग को बुझाने की,
जा गिरी थी सुराही सी गर्दन में, तेज़ाब की प्यास बुझाने,
सन्नाटे की रात में अनायास ही हिस्स्स्स्स की आवाज़ हुई थी।

और तभी आख़िरी बार देखा था अपने परिवार को,
अपनी पत्नी, अपना वंश, अपनी परियों को,
ये ही तो एक सत्य थे जो उसे मक़बूल थे, यही घरौंदा तो उसके उसूल थे,
यही तो वो आशियाँ था, जहां सारे उसे क़बूल थे।

इन उलझनों ने उसकी आँखों में सुराख़ कर डाला था,
सरसराती नदी सी बूँदों नें, उसका पूरा बदन नाप डाला था।

पर तभी वो बीती शाम याद आयी, वो शाम जिसने आग लगाई,
ये आग जो उस शहर ने उसे दिया था, मुक़द्दर के लिबास में जो नफ़रत का टीला था।
ये नफ़रत जो बेबुनियाद थी, जिसे कभी समझ नहीं पाया था वो,
वो झुग्गी में क्यों पैदा हुआ? क्यों उसका रंग गेहुँआ काला था?
क्यों वो छोटी जाति का था, क्या कभी पूछ पाया था वो?

इसीलिए तो उसने मेहनत को अपना धर्म, और संयम को भगवान माना था,
और इसी शहर ने तो उसे ईमानदारी का वादा किया था।

पर आज शाम जो हुआ था, वो बहुत ग़लत हुआ था।
उसके साहब ने जब पानी माँगा था, वो समय से पहले लेकर आया था,
पर किसी दोस्त के कहने से साहब ने उसे उसे पहले पीने को कहा था,
वो थोड़ा झिझका, शर्माया,
जिस साहब के लिए वो जान जे ज़्यादा काम, वो पिछले पच्चीस वर्षों से कर रहा था,
ये अचानक क्या हुआ? क्या माज़रा था?

जैसे ही पानी उसकी होठों को छूते,
एक मोटे डंडे से उस पर वार हुआ था,
उसे थूक कर चाटने को कहा था,
वो काँप गया था, बदन अकड़ गयी थी, साँसें थम गयी थीं।

अख़बारों में नफ़रत की बौछार हुई थी,
सुना है जातिवाद को लेकर नेताओं में दो-दो चार हुई थी,
कि शहर को निगल जाएँगे ये झुग्गी के सांप, ये बात क़त्ल-ए-आम हुई थी,
कि हर नौकर को बताना ये ज़रूरी था की, शहर की जीत, और बाक़ियों की हार हुई थी।

झकझोर दिया था उस डंडे की आवाज़ ने,
आँखें बंद कर,
आज़ाद कर दिया था एक एक कर उस तेज़ाब को अपने महल के चिराग़ों पर,

जैसे आज़ाद कर दिया था अपने घरौंदे को इस नासरसीर ज़माने से,
और दूर भेज दिया किसी इनक़लाब के फ़साने में।

जो चीत्कार निकली रात उस घर में, किसी संगीत की तरह पी गया था वो,
एक हिचकी भर भी आवाज़ ना हुई उसके ज़ेहन में।

एक-एक कर बुलबुलों ने अपना इरादा नापाक किया,
हर सूरत जो बरसों का पैमाना था, एक पल में दल-दल सा लाश किया,
क्या सूरत और क्या बदन, कह पाना मुश्किल था।

जैसे मिला देना चाहता था सारी दूरियों को,
पिघला देना चाहता था, तस्वीरों को।
तब तक धू-धू कर रिसता रहा, जब तक चमड़ी और मांस पिसता रहा।

और फिर तसल्ली कर अपनी कामयाबी पर,
गटक गया वो बाप, फिर तेज़ाब सारी,
और जाते-जाते, एक पैग़ाम दे गया,
अपना घर छोड़, तलाश ले गया,
अपना शरीर छोड़, लाश ले गया,

बर्खुरदार, वो अपने साथ हमारी आस ले गया,
कुछ सवाल छोड़, सारे जवाब ले गया।
© nicholasSquare