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मस्तूल….आधी अधूरी हसरतें
मस्तूल

आदिल को नाव से लौटे हुए काफ़ी दिन हो गए थे, आजकल उसका सारा दिन खाने और सोने में ही गुजर रहा था।

अनाथ आदिल का सारा बचपन इसी मछलीपट्टम की मछुआरा बस्ती में ही गुज़रा था, यहीं उसने मछली तुलाई से लेकर मछली पकड़ने तक का सारा हुनर सीखा और यहीं मुस्तकिम की नाव पर मछुआरा बन गया।

समन्दर में तूफ़ान का ज़ोर था सो सभी नावें किनारे पर लौट आयीं थीं उसी के चलते आदिल भी आजकल यूँ ही ठाल में था।

आदिल एक गठीले बदन का बाँका नौजवान था, मछलीपट्टम के उस छोटे से बंदरगाह की लगभग हर लड़की और औरत उस पर जान छिड़कती थी और किसी ना किसी तरह उसे पाने का जतन करती रहती थीं।

उस शाम आदिल अपने उस छोटे से कमरे में मसहरी पर बेसुध पड़ा था, शायद साकिब की पिलाई ताड़ी का असर उस अभी चढ़ा हुआ था, साकिब भी आदिल के साथ मुस्तकिम की नाव पर मछली पकड़ने जाता था वहीं से आदिल और साकिब की दोस्ती परवान चढ़ी थी।

शाम के लगभग छ बजने को है, गोधूली बेला मानो ढलने ही वाली है, सूरज की रोशनी मद्धम होते हुए अस्ताचल की जा रही है और इक्का दुक्का झोपड़ियों में लालटेनों के जलने का सिलसिला शुरू हो चुका है।

आदिल…आदिल! कहाँ हो तुम? आदिल को आवाज़ लगाते हुए फरजाना ने कमरे के किवाड़ को भीतर की ओर धकेला, जिससे दरवाज़ा के बाहिना पल्ला हल्के से चूंऊं की आवाज़ करते हुए भीतर की खुल गया।

कमरे में आदिल मसहरी पर अभी भी बेसुध पड़ा हुआ था, इतना बेसुध की उसे फरजाना के आने का अहसास तक ना था।

फरजाना मुस्तकिम की दूसरे नम्बर की बेटी थी, अपनी उम्र के सोलहवें पड़ाव पर होने के चलते उस पर जवानी गदरा कर फूट रही थी…..यूँ समझो की वो गाँव, गली या बस्ती में से होकर गुजरती तो उस इलाक़े पर क़हर बरपता था। क्या बच्चा, क्या बूढ़ा और क्या जवान हर कोई उसका आशिक़ था …..पर इन सब उहापोह से दूर फरजाना ख़ुद आदिल की तलबगार थी और ना जाने कब से उस पर मर मिटी थी।

ढलते हुए सूरज की लालिमा लिए हुए रोशनी का कुछ हिस्सा खिड़की से भीतर आकर आदिल के उस सुघड़ अधनंगे बदन को और आकर्षक बना रहा था…आदिल का पका हुआ गेहुँआ रंग और ये लालिमा, काफ़ी थे किसी भी औरत के बहक जाने के लिए सो फ़रजाना का बहक जाना भी लाज़िमी था यहाँ पर।

कमरे के किवाड़ को आहिस्ता से भेडते हुए फरजाना ने दरवाज़े की सिटकनी को उपर की ओर बढ़ाया और दरवाजा भीतर से लॉक कर दिया..और दबे पाँव आदिल की और बढ़ने लगी।

फरजाना की गर्म साँसें आदिल की नंगी छाती को और गर्म कर रही थी, फरजाना का सम्भवतया अपने आप पर क़ाबू कर पाना अब संभव नहीं था।

ना जाने कब फरजाना के लरजते लब आदिल की नाभि के इर्द-गिर्द पहुँच कर उसे चूमने को उतावले होने लगे, नाविक होने के नाते आदिल का बदन जितना गठीला होना चाहिए था ये उससे भी कहीं अधिक सुडौल था …नाभि की ढलान ऐसी थी कि मानो पेट के रास्ते वो उसकी कमर के नीचे तक सरक जाने का वन वे बनाती हो…यहाँ फरजाना ही क्या कोई और भी होता तो शायद इस सुगढ़ नाभि पर फ़िसल ही जाता सो फरजाना भी फिसल गई ।

अब फरजाना के आतुर लब आदिल की नाभि से उसके पायजामे के नाड़े तक का सफ़र तक चूके थे…यहाँ से उसके लबों का आगे पहुँच पाना लगभग असंभव था।

शायद यहाँ से आगे का रास्ता अब फरजाना की उँगलियों को तय करना था सम्भवतया इसीलिए उँगलियों ने आहिस्ता आहिस्ता आदिल के पायजामे की और सरकना शुरू भी कर दिया था।

अभी उँगलियाँ पायजामे के नाड़े के नाड़े के आस पास ही पहुँची थी की आदिल ने सरसराते हुए फरजाना का हाथ झटक दिया…मदहोश पड़े आदिल को सम्भवतया फरजाना की पेट पर रेंगती उँगलियों से गुदगुदी हो रही थी।

हाथ के यूँ अनायास झटके जाने से फरजाना सहम सी गई आदिल जाग तो नहीं रहा…..

आदिल के यूँ अचानक से हरकत में आ जाने से फरजाना की चढ़ी हुई ख़ुमारी एकाएक काफूर हो चली…फरजाना अनायास ही अपने होशोहबास में लोटते हुए दरवाज़े की दौड़ पड़ी।

दहलीज़ से अपने कदम बाहर निकालते हुए फरजाना ने एक सरसरी सी नज़र वापस से आदिल पर डाली और एक मदहोश कर देने वाली आह भरते हुए दरवाज़ा आहिस्ता से भेडा और दबे पाँव अपने घर की ओर दौड़ पड़ी।

उधर मदहोशी के आलम में गिरफ़्त आदिल अभी भी यह नहीं समझ पा रहा था कि ये सब उसका सपना था या वाक़ई हक़ीक़त…..
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