...

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इश्क़ की ज़िम्मेदारियाँ
ज़िम्मेदारियों का बोझ मुझे सोने नहीं देता
कोई है मेरे अन्दर जो मुझे मेरा होने नहीं देता।

बेक़रारी बढ़ गई है इश्क़ में अब इतनी
उसकी यादों में दिल, आँखों को रोने नहीं देता।

तन्हाई ही अच्छी है बेवजह की भीड़ से, मगर
यादों का तसव्वुर मुझे, अब तन्हा होने नहीं देता।

वो जाने क्या छुपा है दिल में उसके,
ना तो ख़ुद मुझे मिल रहा है,
किसी और का भी वो मुझे तो होने नहीं देता।

देता है वो दर्द-ए-दिल मुझे कुछ इस तरह
ज़ख्म देकर तकलीफ़ भी मग़र होने नहीं देता।

मुझे भुलाकर ख़ुद तो ख़ूब सोता है वो बे-परवाह
तड़प देकर अपनी मुझे मग़र वो सोने नहीं देता

पहले मिलता था सुकूँ उसकी मुस्कुराहट से
रहकर ख़ामोश अब वो, दिल-ए-करार मुझे होने नहीं देता।

ख़ुद दूर चला गया तन्हा मुझसे वो, लेकिन...
मुझे मेरा अब भी वो मुझे होने नहीं देता।


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© Gaurav J "वैरागी"