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उदासी
सुबह और शाम में बहुत फ़र्क़ होता है। मगर यह फ़र्क़ हर एक को नज़र नहीं आता। यह फ़र्क़ केवल उदास इंसान ही समझ सकते हैं।
किसी उदास इंसान के लिए सुबह भी उदास होती है। उसमें उसे कुछ नया नहीं दिखता केवल उदासी दिखती है। यह उदासी वैसी ही होती है जैसी उदासी किसी खिलौने के ना मिलने पर बच्चे के चेहरे पर होती है।
ऐसे इंसान के लिए शाम वरदान बनती है। जैसे-जैसे अंधेरा घिरता है उदास इंसान उदासी जीने लगता है। उसके लिए हर एक भावना या दर्द का छिपाव करना आसान हो जाता है।
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मुझे अंधेरा पसन्द है क्योंकि इस अंधेरे में मुझे मैं तो दिखाई देती हूँ लोग नहीं दिखते। हाँ! मगर, इस अंधेरे में मुझे लोग सुनाई देते हैं, जिनमें मैं खुद को अनसुना कर देती हूँ और उदास इंसान यही चाहता है.. खुद को अनसुना करना।
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