मेरी नौकरी
सवेरे के 5 बजे, वीरान सी सड़क, जनवरी की कड़कड़ाती सर्दी और पार्क के किनारे पड़ी बेंच पर बैठा मैं । हाँ उस ठंड में भी मैंने घर से निकलते वक्त रस्सी पर टँगा, बस बहन का सूती दुप्पट्टा ही तो उठा लिया था और उस ठंड का मुकाबला करने के लिए उसे अपने ऊपर लपेट चल दिया था मैं। उस भीषण ठंड में भी कुछ अलग ही बेचैनी सी महसूस हो रही थी , ठंड का लेशमात्र भी विचलित नही कर रहा था और एक आग सी भड़की थी दिल में , जोश और जज़्बे की किंचित भी कमी न थी मुझमे पर मजबूरी का एक असहज भाव भी साथ...