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मेरी नौकरी
सवेरे के 5 बजे, वीरान सी सड़क, जनवरी की कड़कड़ाती सर्दी और पार्क के किनारे पड़ी बेंच पर बैठा मैं । हाँ उस ठंड में भी मैंने घर से निकलते वक्त रस्सी पर टँगा, बस बहन का सूती दुप्पट्टा ही तो उठा लिया था और उस ठंड का मुकाबला करने के लिए उसे अपने ऊपर लपेट चल दिया था मैं। उस भीषण ठंड में भी कुछ अलग ही बेचैनी सी महसूस हो रही थी , ठंड का लेशमात्र भी विचलित नही कर रहा था और एक आग सी भड़की थी दिल में , जोश और जज़्बे की किंचित भी कमी न थी मुझमे पर मजबूरी का एक असहज भाव भी साथ ही था। सेना से आये पत्र के अनुसार आज ही मुझे घर से रवाना होना था वरना अगले दिन उपस्थिति के समय तक मेरा पहुँचना सम्भव न रहता । माँ की अनेको आशाएँ जुडी थी मेरी नौकरी को लेकर घर की मरम्मत, बहन की शादी और मेरे छोटे भाई की पढ़ाई भी तो करनी थी पर सेना .....
यह उन्हें हरगिज़ मंज़ूर नही था देश के लिए प्यार और उसका कर्ज उतारने की अपार अभिलाषा थी पर इस मोह से कोसों ऊपर थी माँ,
माँ तो होती ही हैं कोमल और मार्मिक हृदय वाली कैसे सोचती की बेटा कुर्बान हो जाए ।
पापा ने भी तो बहुत कोशिश की थी माँ को समझाने की
पर वो कहाँ मानने को तैयार थी; घण्टों उस बेंच पर बैठे मैं माँ को मनाने के तरीकों से जूझता रहा पर कहाँ निकल पाया कोई रास्ता। वापस घर पहुँचा तो पाया के बगल के घर की शांता काकी, माँ को अपने बेटे की मौत की बात बताकर बिलख रहीं थीं ,जम्मू में काम के सिलसिले में गया उनका बेटा आतंकवादी हमले में मारा गया , मैं वहीं सामने पड़े तखत पर लेटा सब सुनता रहा ।बस ज्यों ही शांता काकी निकली माँ मेरी तरफ बढ़ीं और मेरे बहन को पुकारते हुए बोली "अपने भाई से कह दे ज़रा जाकर बेसन ला दे उसके सफर के लिए लड्डू और मठरी बनाकर रखने हैं।" ज्यों ही ये सुना मैं माँ के सामने जा पहुँचा वो बोली : "आज ही तो निकलना है ना तुझे एक और शांता को उसका बेटा न खोना पड़े इसलिए मुझे तो बनना पड़ेगा न एक बहादुर फौजी की बहादुर माँ।" माँ की बात सुनकर मैं उसके गले लग गया और आँखों को बहने से रोक ही ना सका । और फिर क्या माँ ने अपना प्यार और आशीर्वाद उन लड्डुओं में भरकर बांध दिया ।

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