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"दास्तान-ए-अफगानिस्तान..."
"दास्तान-ए-अफगानिस्तान”
पहले देश लुटा, डरा कर आतंक का दर्द,
जब लूट मातृभूमि को वे हुए पुष्ट निडर..
की कर सके जो ना मादरे वतन की रक्षा,
वो फिर किस मुंह करेगें अपने परिवार की सुरक्षा..

देश लूट, वे अब बेहशी हो चले थे,
कि उनको ना हया थी ना शर्म थी,
लाज को पहले ही तज चुके थे,

लूट दौलत मन जब उन दरिंदों का भर गया
तब बेहशीपन पिशाचों का और बढ़ गया..,

लुटना शुरु हुई नन्हीं बच्चियों ओ ख़वातीने..
कि मर्दों ने पहन ली थी चूड़ियां अब बाहों में..
क्या बाप, क्या बेटा, क्या भाई, क्या शौहर
एक भी ना आया वक्त पर, किसी के काम,

जिन्हें पसंद ना था कभी, कि सर-ए-राह हो ख़वातीने,
वो आज सर झुकाए, तमासबीन खड़े हो सिर्फ़ देखते...