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"दास्तान-ए-अफगानिस्तान..."
"दास्तान-ए-अफगानिस्तान”
पहले देश लुटा, डरा कर आतंक का दर्द,
जब लूट मातृभूमि को वे हुए पुष्ट निडर..
की कर सके जो ना मादरे वतन की रक्षा,
वो फिर किस मुंह करेगें अपने परिवार की सुरक्षा..

देश लूट, वे अब बेहशी हो चले थे,
कि उनको ना हया थी ना शर्म थी,
लाज को पहले ही तज चुके थे,

लूट दौलत मन जब उन दरिंदों का भर गया
तब बेहशीपन पिशाचों का और बढ़ गया..,

लुटना शुरु हुई नन्हीं बच्चियों ओ ख़वातीने..
कि मर्दों ने पहन ली थी चूड़ियां अब बाहों में..
क्या बाप, क्या बेटा, क्या भाई, क्या शौहर
एक भी ना आया वक्त पर, किसी के काम,

जिन्हें पसंद ना था कभी, कि सर-ए-राह हो ख़वातीने,
वो आज सर झुकाए, तमासबीन खड़े हो सिर्फ़ देखते रहे..
लूट रहा था वो गैर, अस्मत उसके घर की, उसी के सामने,
कि सर-ए-बाज़ार नीलाम हो रही थीं, आबरू घर की, शौहरो के ही सामने,

लोग पर्दा हटा, हर अंग टटोल जायज़ा यूं ले रहे थे,
जैसे दुकानों में अलट पलट सामानों को परखते हैं..
बोलियां भी निलामी की, आकार-ओ- प्रकार देख अंगों अनुसार घट बढ़ यों रहीं थी.. जैसे लगती हों बोलियां सब्जियों के बाज़ार में..

बेपर्दा बेहाया हुई इन इंसानी हरकतों को देख,
यकीं बिलकुल भी अब इन्सानियत पर, ना हो रहा था,
शौहरो के सामने ही बीबियों को वो शख्स नंगा कर बेपर्दा कर रहा था ,
प्रतिकार तक न कर सके ये निर्लज, हाथ बांध सिर्फ़ तमाशबीन देखते रहे,

जैसे बदले में हमारी आबरू के, जीवन का भरोसा दिया गया हो इन्हें कोय..
लुट अस्मत हमारी संतुष्ट जब ये भेड़िए हुए, तो उठा बंदूक उतार दी गोलियां, जिस्म में उन सभी के..
आबरू लूट बहते लहू के साथ, यूं ही नंगा कैदखाने में धकेल दिया, ना जानें क्यों मुझे जिंदा इन जालिमों ने छोड़ दिया..

सिर्फ़ तब्दील लाश में ना हुई थी, वैसे मैं जिंदा ही कहां बची थी,
रोज़ नोंचते थे, कचोटते थे, हरकतें भूखे हवस के भेड़ियों सी करते थे,
ना मार रहे थे मुझे, ना मरने ही दे रहे थे, एक एक दिन में 50-50 सवार हो, जिस्म की भूख अपनी शांत कर रहे थे..
नर के नाम पर, ये नरपिशाच थे ,शायद मेरे ही किसी पूर्व जन्म के कर्मों की सज़ा मुझे दे रहे थे..

मैं लाचार थी, जिंदा लाश थी, एक दिन निढाल हो बेहोश हो ही गई..
मरा समझ दरिंदों ने, जंगल में जानवरों के लिए मुझे फेंक दिया, वहां जानवरों ने इनसे अच्छा, मेरे साथ सलूक किया..
समय बीता, स्वस्थ हुई, जिस्म के जख्म - दिल तक पहुंच चुके थे, कि घाव तन के अब भर चुके थे..

मैंने भी अब बंदूक उठा, इंतकाम का फ़ैसला लिया, कुछ नही तो सैकड़ों को ठंडा किया..
इंतकाम कुछ पूरा हुआ, कलेजा कुछ नम सा हुआ, आंखें वर्षों बाद भर आई, की अब फिर मैं शायद जिंदा हुई,
अब हमेशा बंदूक मे, एक गोली अपने लिए भी रखती हूं, बिना बंदूक के, कि अब कभी ना मैं रहती हूं..

अगर कभी, फिर घिरी इन दरिंदो से, तो मार ये अंतिम गोली, खुदकुशी कर लूंगी, कि अब न कभी इन दरिंदों के हाथ, जिंदा जिस्म को फिर ना लगने दूंगी..
© दी कु पा