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मौन है मेंढक
रात के 10 बजे 🌃

आओ मेरे प्यारे मेंढक बैठो मेरे पलंग के नीचे क्यों छुपते हो अलमारी के पीछे ? क्या कोई चोर है तुम्हारे मन में या कोई बड़ी उलझन है तुम्हारे जीवन में !

कुछ अनमने उदास से जान परते हो, रौशनी में जाकर अपनी लंबी जीभ से लपककर कीड़े क्यों नही खा आते ?
तुम अब भी मौन हो कहीं तुम्हारी उदासी के पीछे उस मेंढकी का हाथ तो नहीं जो छोड़ गई तुम्हें किसी और के लिए। जाने उसे क्या दिखा वहां उनमें जो तुम्हारे में नही... मुझे तो तुम सब एक से जान परते हो, जाने उसे क्यों न लगे !

आज वो छोड़ गई तुम्हें क्योंकि तुम कुरूप हो ; जन्मजात कुरुप। कल को वो वापस आ सकती है अगर उसे धोका मिले वहां; लेकिन वो वापसी तुम्हरे लिए तभी होगी यदि उसके रास्ते में तुम टाई बांधे कुत्ते की तरह जीभ लटकाए हांफते हुए बैठे मिलोगे; वरना नहीं।

मेरे एकाकी के साथी मेंढक क्यों कुछ कहते नहीं! पता है नए लोगों से बातें करना मुझे बहुत पसंद है, लेकिन बीच में ही वे हां...हम्म.. करके बातें खत्म कर देना चाहते है। शायद इसलिए क्योंकि मैं मेरे मन की बातें करने लगता हूं, उनके नहीं।

तुम अब भी मौन हो ! क्या मेरा फोन चाहिए तुम्हें? अच्छा, मैं तुम्हारे लिए नया ला दूंगा। मुझे तो बुरी लत लग गई है फोन की तुम मत लगाना। अब भी चुप हो क्या मेरा ही फोन चाहिए तुम्हें?
अच्छा ये लो मैं अलमारी के निचे ही सरकाए देता हुं ... पर देर रात तक चलाते मत रहना। अब ये फोन भी तुम्हारा है और आंखें भी सो ख्याल रखना......!
अरे यह क्या तुम फोन के उपर ही बैठे चला रहे हो। इतने करीब से फ़ोन चलाना सही नही। जल्द आंखें खराब हो जायेंगी तुम्हारी। फिक्र है बस इसलिए कहता हूं। नाराजगी में भले न बोलो आज मुझसे लेकिन तुम्हारे लिए जो बुरा है उसमे मैं समझाता रहूंगा। जब तक साथ हूं।
अब हल्की नींद सी आ रही है। बिना फोन के देर रात तक जगा नहीं जाता मुझसे; तुम भी सो जाना समझे....!

अगली सुबह 🌅

आज सुबह जल्दी जग गया था सोचा क्यों न बाहर घुम आया जाए। जो पिताजी कभी न कर पाए वो मेरे मेंढक दोस्त ने कर दिखाया..।
पूरब में क्षितिज पर पसरी लालिमा दिखी उगते सूरज के सम्मान में।
ठंडी मंद हवाएं शरीर को गुदगुदाके खूब रोमांचित कर रही थीं। पेड़ों के झुरमुट से गर्दन निकालकर चिड़ियों की चहचहाना; अनंत आकाश में जहां तहां बिखड़े पंछियों के झुंड। ऐसा जान पर रहा था आज प्रकृति संपूर्णता में है और मैं इसका एक अभिन्न अंग !
मन में आया आज घर जाके मेंढक दोस्त को इन सब के लिए धन्यवाद करूंगा।
पैरों में नादानी लिए आह्लादित मन से, विचारों की सागर में डूबते उतरते घर को आ गया ।

हाय.. य.. य.! दरवाजे से सटे एक सांप मेरे मेंढक दोस्त को आधा निगले हुए वहां लोट पोट रहा था। दोस्त का आधा पेट और पिछले दो टांग ही बहार छटपटाते दिख रहे थे।
सोचा कि बचाऊं उसे लेकिन एक विषैले सांप से मित्र की रक्षा कैसे की जाए।? इसलिए ख़ुद को समझाने लगा -- किसी जीव के मुख से भोजन छीनने का मुझे क्या अधिकार! या की मैंने कौन सा चेहरा देखा कि मेरा ही मित्र है। किसी अनजान के लिए खतरा क्यों मोल लूं ! और मैं सांप को वहीं खड़े खड़े मेरे मेंढक दोस्त को पुरी तरह निगलते देखने लगा।
पहले फूला हुआ पेट फिर पिछले पसरे हुए दो टांग सब उस काली गुफ़ा में समा गए देखते देखते।
आहार ग्रहण करने के बाद सांप को आलस्य ने घेर लिया। वह दरवाजे के पास पेट फुलाकर वहीं लेटा रहा। मैं उस सुस्त पड़े सांप को एक छड़ी के सहारे उठाकर दूर सड़क किनारे छोड़ आया..!

कितना अच्छा था मेरा मेंढक दोस्त!
मेरी अच्छी बुरी सब बातें चुपचाप सुनता था। एक प्रेमिका थी उसकी सो भी छोड़ गई। सच ही एक कुरुप का जीवन दुःख का सागर होता है!
मित्र, नारी सब बारी बारी छोड़ जाते हैं और संपत्ति? संपत्ति क्या थी उसकी बस आलमारी के नीचे की थोड़ी सी जमीन! अब उसका इस संसार से चले ही जाना ही श्रेयस्कर था सो चला गया सदा के लिए मुझे छोड़के।

विचारों की इसी उहापोह में वापस घर को आ गया। अब अकेलेपन में मुझे मेरे फ़ोन की याद आई और लपककर मैं अपने कमरे में गया, अलमारी के नीचे झांका तो फोन अब भी वहीं था... लेकिन अब वो चलाने वाला नहीं और कभी होगा भी नहीं!
कभी कुछ नही मांगा मुझसे जो एक फोन लिया वो भी पीछे छोड़कर चला गया।
मैं फोन उठाकर झाड़ते हुए पीछे की ओर मुड़ा कि आवाज आई "टर्र..र..र.. र!" लेकिन आलमारी के नीचे से नही, पलंग के नीचे से! 🐸

© rakesh_singh🌅