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अधूरा हमसफ़र _पूरी कहानी
भरी दोपहरी में, पसीने से लथपथ कालेज के ग्राउंड में एक लड़का अकेला वालीबॉल खेल रहा था। कहने को तो वो खेल रहा था पर वो दिमाग़ से कुछ और ही सोच रहा था। शायद उसकी गहरी सोच और तेजी से वालीबॉल को अपने हाथों में नचाने में काफ़ी अच्छा तालमेल था, तभी पीछे से उसके दोस्त साहिल ने ऊंची आवाज़ लगाई 'अमर' और अचानक ही वह पलट कर देखता है। साहिल ने कहा- यार कहां खोया हुआ रहता है। अमर ने भारी आवाज़ में कहा - कहीं नहीं यार,बस यूं ही। फिर उदास आवाज़ में अमर ने कहा, यार साहिल दिल नहीं लगता है। साहिल ने कहा क्यों क्या हुआ? अमर ने कहा- जब से कविता को देखा है ऐसा लगता है जैसे खो सा गया हूं। तभी साहिल ने तपाक से कहा - बस इतनी सी बात है तो चल तेरी बात कविता से करवाता हूं।यह सुनकर अमर ने कहा - तू उसे कैसे जानता है? यार तू अपने दोस्त, अपने भाई को नहीं जानता, तेरे भाई की पहुंच पहले से है, साहिल अमर के कंधे को थपथपाते हुए कहता है। मतलब तेरी दोस्त है, अमर चौंकते हुए पूछता है। हां, साहिल ने लंबी सांस लेते हुए कहा।
अगले दिन साहिल अमर को कविता से मिलाता है। हाई कविता मीट माई फ्रेंड अमर। कविता मुस्कराते हुए, हाई अमर कैसे हों? अमर हिचकिचाते हुए मममै ठीक हूं। बस और क्या था धीरे -धीरे कविता और अमर की बातें होने लगी और वो रोज मिलने लगे।
वक़्त गुजरता गया और उन दोनों की नजदीकियां भी वक़्त के साथ साथ बढ़ती गई। अमर के दिल में कविता के लिए एक अलग सा एहसास हो रहा था। वो समझ नहीं पा रहा था कि आखिर कुछ दिनों से उसके दिलो दिमाग में यह कैसी बेचैनी हो रही है।
उसका किसी भी काम में मन नहीं लगता था। जब भी अमर कविता से बात करता न जाने क्यों उसे खुशी मिलती। लेकिन यह अमर के लिए भी एक बड़ी विडंबना थी कि क्या कविता भी वही महसूस करती है जो आज़ वो करता है। कविता और अमर घंटों रोज़ बातें किया करते थे यहां तक कि एक दूसरे का ख़्याल भी बेहद रखते थे पर इसके बावजूद भी अमर कभी भी अपने दिल की बात कविता को नहीं बताई।
अमर का दिल बेहाल था और अक्सर वो कविता से बात करके एक बेचैन भरी सांसें लेता था । शायद अमर का वो एहसास कहीं इकतरफा तो नहीं था क्योंकि कविता की तरफ़ से एक भी एहसास अमर महसूस नहीं अब तक कर पाया था।

कुछ दिनों बाद, मौसम बारिश का था । दिन के 1:30 मिनट हो रहे थे। कविता अक्सर हर रोज़ इसी वक़्त अमर से मिलने आती है पर आज़ कविता नहीं आई, पर उसका फोन आया।
हेलो! अमर क्या तुम आज़ मुझसे मिलने मेरे घर आ सकते हो।
अमर अपने घर की खिड़की से बाहर झांकते हुए कहता है - कविता बाहर बारिश हो रही है तो क्या बाद में आऊं?
कविता ने तेज आवाज़ में कहा- नहीं अभी आओ,
म मुझे तुमसे बहुत ज़रूरी बात करनी है। इसलिए मैं इंतज़ार कर रही हूं और हां तुम्हारी फेवरेट ब्लेक काँफी मैं बना कर रखती हूं।

अमर इस सोच में डूबा हुआ था आख़िर ऐसी क्या ज़रूरी बात है जो कविता ने बारिश रुकने का भी इंतज़ार नहीं किया। तभी बिजली ज़ोर से कड़कने की आवाज़ आती है।
अमर थोड़ी देर के लिए रुक तो गया पर बात आख़िर कविता की थी और जाना तो ज़रुरी था चाहे तेज़ बारिश हो या फ़िर कड़कड़ाती बिजली, डर भला इश्क़ में और इश्क़ की खुशी में कहां होता है।
अमर जैसे तैसे कविता के घर पहुंच तो गया लेकिन कविता कहीं दिखाई नहीं दी। तभी अचानक पीछे से कविता अमर के गले से लिपट गई और मुस्कुराने लगी। अमर इस तरह कविता को अपने नजदीक पाकर उसकी दिल की धड़कन तेज हो गई थी। वह सोच रहा था कि आज़ कविता को अपने दिल की सारी बातें बता दूंगा और इसके लिए उसने अपने लब खोल कर कहा भी - कविता मैं तुमसे,
तभी कविता अमर को रोकते हुए - हां, तुम्हारी फेवरेट ब्लेक काँफी तैयार है, तुम पी लो बारिश में भीग कर आए हो। रुको मैं लाती हूं।

अमर इस बात से भी थोड़ा ख़ुश था कि कविता आज़ बहुत खुश है और उसकी खुशी ही अमर के लिए बहुत मायने रखती थी। अमर अपने मन में यह सोच रहा था कि कहीं कविता आज़ अपने एहसास का इज़हार मुझसे करने वाली तो नहीं, यह सोच कर अमर भी काफी उत्साहित हो रहा था।
अमर सोफ़ा पर बैठे हुए कुछ किताबें उलट रहा था तभी कविता अमर के लिए ब्लैक काँफी लाती है।
टनटनननन ये लो अपनी काँफ़ी - चहकती हुई कविता अमर को बोलती है।

अमर मुस्कुराते हुए " हां, अब बोलो क्या बात बतानी है जो तुमने बारिश रुकने का भी इंतज़ार नहीं किया।
कविता ख़ामोशी से हल्की सी मुस्कान लिए अमर की ओर देखती है और इधर अमर की दिल की धड़कन तेज हो गई थी। बोलो ना क्या बात है" अमर बेचैनी भरे आवाज़ में बोलता है।

कविता हल्की आवाज़ में - अमर, एक्चुअली मैं ये कहना चाहती थी, तभी तेज हवाओं से खिड़कियां आपस में टकराती हैं और अमर थोड़ा चौंकते हुए खिड़की की ओर देखता है और तेजी से खिड़की को बंद करके कहता है"कविता अचानक से यह ख़ामोशी क्यों? जो कहना चाहती हो जल्दी कहो ना यार।
तभी कविता सर उठाते हुए कहती है " अमर, मैं साहिल से प्यार करती हूं। यह सुनकर अमर के हाथ से काँफी खुद के ही पैर पर गिर गई। तभी कविता चिल्लाई - अमर, पर अमर के आंखों में ख़ामोशी भरी आंसू और लबों पर अधूरी बात जिसे वह कविता से कह भी नहीं पाया, दम तोड़ती नज़र आ रही थी। कविता ने झकझोर कर कहा " अमर क्या हुआ तुम्हें जिसे सुनकर तुमने कुछ बोला नहीं।
अमर लड़खड़ाती ज़बान से और थोड़ी मुस्कान लिए कहा" व्हाट अ सरप्राइज़, तुम साहिल से प्यार करती हो। मैं बहुत खुश हूं कविता... बहुत ही खुश हूं। अमर को अब एक पल भी कविता के सामने रुकना मंज़ूर नहीं था। अब मैं चलता हूं " अमर कहकर जाने लगता है तभी कविता कहती है - अमर तुम शाय़द कुछ कहना चाहते थे। अमर मायूसी भरी आवाज़ में बोलता है- कविता मेरी बातें तेरी बातों से ज़्यादा खुशियां नहीं दे सकतीं थीं और तेरी खुशियां के सामने मेरी खुशियां कहां मायने रखती। और तभी बिजली ज़ोर से कड़कड़ाती है।
अमर भी जाने लगता है लेकिन कविता रोकते हुए " कहां जा रहे हो इतनी बारिश में और देखो बिजली भी ज़ोर-ज़ोर से गरज रही है। भीग जाओगे और तबियत भी ख़राब हो जाएगी।
अमर मायूसी भरी आवाज़ में कहा - आया तो था खुशियों की बारिश में पर कौन कमबख्त जानता था कि जाना भीग कर आंसूओं की बारिश में पड़ेगा। इतना कहकर अमर दौड़ता हुआ घर की ओर चला गया।
कविता अमर को तब भी नहीं समझ पाई या फ़िर समझ कर भी वो अंजान थी।
दिन पर दिन बितते चले गए और अमर अब बस ख़ामोशी भरी ज़िंदगी गुज़ार रहा था। कविता से भी उसने कम बातचीत करने लगा और मिलना भी करीब ख़त्म ही था।
छः ऋतुएं गुजरती गई, अमर की आंखों में आंसूओं ने भी साथ छोड़ दिया, मुस्कान भी लबों पर सजना छोड़ दिया। अब क्या था अमर भी उन छः ऋतुओं की तरह धीरे धीरे बदलता चला गया।
पर एक ज़िम्मेदारी अब भी बाकी थी वो है दो दोस्त के दिल को प्यार में बदलने का। कहते हैं ना -

"इश्क़ तो बस हमें एक इश्क़ से हुआ
पर वफ़ा तो हमें दोस्ती में भी करनी थी
और इश्क़ में भी"

अमर आख़िर दोनों के प्यार को मिलाकर कर ख़ुद उन दोनों की ज़िंदगी से दूर चला गया। सवाल आखिर कविता की खुशी का था जिसमें कुर्बानी अमर ने अपने प्यार का दिया और दर्द को हमेशा के लिए गले लगा लिया। अपने दोस्त साहिल को भी उसने कुछ नहीं कहा बस गले से लिपट कर अमर रोता रहा जबकि साहिल को एहसास था कि अमर भी कविता से।

वक़्त गुजरता गया अमर भी वक़्त के साथ बदल चुका था और कहीं ना कहीं अमर कविता को अपने दिल से दूर रखने की कोशिश करता था।
अमर साहिल और कविता की संपर्क से काफ़ी दूर हो गया था। ना ही अमर ने बात करने की कोशिश की और ना ही साहिल और कविता ने।

पांच साल बाद -

पांच साल गुजर गए। साहिल और कविता एक दूसरे के साथ शादी कर चुके थे और अपनी ज़िंदगी बड़े आराम से गुजार रहे थे। लेकिन कहीं न कहीं कविता अमर के बारे में सोच रही थी।

कविता की बात हुए अमर से सालों गुजर गए थे और अजीब सी कशमकश से भरी कविता यही सोच बेचैन थी कि वो कहां है, कैसा है और किस हाल में है। अब वक़्त भी पहले जैसा नहीं था और जज़्बात भी वक़्त के साथ करवटें ले रहा था।
कविता का दिलो-दिमाग अमर के ख़्यालों से हट नहीं रहा था। ज़िंदगी की कहानी के पन्ने दोनों तरफ़ पलट रहे थे। उधर अमर भी सब कुछ भूला ख़ुद अपनी मंज़िल तलाश रहा था। सालों गुजर गए और वक़्त दर वक़्त अमर भी बदलता चला गया। हालांकि, हालात और जज़्बात से अमर आज़ भी ख़ुद को कमजोर समझता था।
अमर कविता से बहुत दूर निकल चुका था शायद अब मिलना तो नामुमकिन ही था। पर बावजूद उसके कविता ने हर कोशिश कर ली थी पर अमर से बात होना नामुमकिन था।

उसकी घबराहट, उसकी बेचैनी और उससे बात करने की तलब अमर से आख़िर क्यों थी?
आख़िर क्यों कविता ने अमर को इतने सालों बाद याद किया?
कड़कड़ाती ठंड में अकेले छत पर कविता आखि़र अमर के बारे में क्या सोच रही थी?

अब सवाल भी अधूरी थी और जवाब भी अधूरे थे।
अधूरी दोस्ती थी, अधूरे रिश्ते थे, और जो सफ़र मिलकर पूरे ना कर सके वो बनकर रह गया अधूरा हमसफ़र।।

© Aashu_ The Poet