...

1 views

भैया दूज का सही अर्थ
भैया दूज का पर्व शेष चार पर्वों के बाद ही क्यों? पहले क्यों नहीं?

जरा हटके....

वर्णित श्रुतियों, कथा और कहानियों में से एक कहानी ऐसी भी है जिसमें ऐसा बताया गया है कि जिस दिन दिवाली के रूप में मनाया जाता है, उस दिन राक्षस नरकासुर का वध करने के बाद श्री कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा से मिलने गए थे। तब श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा ने कृष्ण के माथे पर तिलक लगाकर उनका स्वागत किया था। तभी से यह दिन भाई दूज के रूप में मनाया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भैया दूज का इतिहार लगभग 5000 वर्ष पुराना है।*

इब्राहिम ने आज से लगभग 2500 वर्ष पहले इस्लाम धर्म स्थापन किया था। इसका मतलब है कि 2500 साल पहले ही संसार में अधर्म अज्ञान छाया हुआ था। धर्म स्थापन करने के लिए ज्ञान दिया जाता है। ज्ञान तब ही दिया जाता है जब समाज, राष्ट्र या विश्व में अज्ञान छाया हुआ हो। अज्ञान है तो विकार अवश्य होंगे। विकार हैं तो अवश्य ही भ्रातत्व भाव या भाई बहन का भाव नहीं होगा। इसका यह अर्थ हुआ कि यदि हम 5000 वर्ष नहीं मानें, फिर भी लगभग 3000 हजार वर्ष पहले वाले जमाने को तो कम से कम समझा जा सकता है जिस समय भैया दूज की शुरुवात हुई होगी। हम 3000 वर्षों से भैया दूज मानते आ रहे हैं। विश्व की स्थिति को गौर से देखें। अभी तक भी विश्व में सबकी आपस में भाई बहन की भावना और भ्रातत्व को भावना नहीं बन सकी है। विडंबना यह है कि भैया दूज मनाने के 3000 वर्ष के लम्बे समय के पुरुषार्थ का कोई सकारात्मक परिणाम हुआ नहीं। रूढ़िवाद और परंपराएं चलती रहती हैं। शायद लगभग दस प्रतिशत लोगों में ही आत्मिक भावनाओं का असर रहा होगा। वरना संसार और सांसारिक लोगों की भावनात्मक स्थिति वैसी की वैसी ही है जैसी 3000 वर्ष पहले थी। खैर। आत्मिक भावनाओं की तरलता कुछ ऐसी चीज है जो 10 प्रतिशत ही बाकी के 90 प्रतिशत पर भारी पड़ती है। भाई भाई की और भाई बहन की आत्मिक भावना नहीं बनने का आखिर मूल कारण कारण क्या है? विचारकों के लिए अवश्य विचार करने का विषय है।

यह भैया दूज के त्यौहार का सम्बंध केवल भाई और बहनों के बीच का ही सम्बंध नहीं है। बल्कि इसके कुछ गहरे अर्थ भी हैं। वास्तव में इस पर्व का सम्बन्ध विश्व की सर्व आत्माओं के प्रति भाई भाई की भावना के पैदा होने से भी है। इसमें जीवन की एक उच्चतम मानसिक और भावनात्मक धारणा निहित है। किसी भी प्रकार की धारणा का अर्थ क्या होता है? धारणा का अर्थ होता है कि भावनात्मक और मानसिक रूप से किसी विषय विशेष के प्रति यथार्थ समझ का होना और व्यवहार में उस समझ का प्रैक्टिकल स्वरूप होना। भाई दूज पर जो धारणा बनाने और अनुभव करने की भावना होती है वह यह है कि हम विश्व के सभी मनुष्य अपने अनादि दिव्य स्वरूप आत्मा का तिलक प्रकाशित होता हुआ अनुभव करें तो भाई और बहन की भावना अर्थात् भाई चारे की भावना स्वतः ही प्रगाढ़ होगी। तब यह 10 और 90 का अनुपात बिल्कुल उल्टा हो जाएगा। 90 और 10 का हो जायेगा। उसे ही सतयुग की स्थिति कहते हैं।

भाई चारे की भावना बनने के और नहीं बनने के परोक्ष में कई मनोवैज्ञानिक पहलू काम करते हैं। सभी पहलुओं पर चर्चा करना प्रस्तुत विषय में आवश्यक नहीं है। पर इतना अवश्य कहना उचित होगा कि भाई चारे या भाई भाई की भावना या भाई बहन की आत्मिक भावना का जो व्यवहारिक पहलू है वह काल देश और परिस्थिति के आधार पर प्रभावित होता रहा है या होता रहता है। जब हम सब आत्माएं सर्व प्रकार से संपन्न बनती हैं तब हम आत्माओं में सहज और स्वाभाविक रूप से भाई भाई की भावना या भाई बहन की भावनाएं व्यवहार में सक्रीय रूप में रहती है। सामान्यतः तब ही जीवन में विश्व की आत्माओं के प्रति और भाई बहनों के बीच में भाई दूज की स्वाभाविक (नेचुरल) स्मृति और वृत्ति रहती है। अन्यथा भाई भाई या भाई बहन की स्मृति और वृत्ति में स्वाभाविकता नहीं रहती है। तब तक आंतरिक भावनात्मक स्तर पर एक निश्चित प्रकार की सूक्ष्म भेद रेखा बनी रहती है। इसलिए आत्मिक रूप से भाई भाई की स्मृति वृत्ति में कमोवेश फर्क रहता है। यह एक व्यवहारिक सत्यता है। हम प्रायः इसे झुठलाने की कोशिश करते हैं। पर इसे झुठलाया नहीं जा सकता। यह सच्चाई मनुष्यों के अवचेतन अचेतन मन का हिस्सा है।

*इसलिए भैया दूज का यह त्यौहार हमें जीवन के भीतरी विज्ञान का यही संदेश देता है कि जीवन के महत्वपूर्ण और आधारभूत पहलुओं में समता के भाव का होना और समत्व भाव का पैदा होना ही एक ऐसा सूत्र है जिससे ही जीवन के व्यवहारिक पहलू में स्थायी रूप से स्वभावत: आत्मिक भाव आता है। यह बहुत गहरा मनोविज्ञान है कि आत्मिक और भौतिक संपन्नता से स्वत: ही पारस्परिक भ्रातत्व भाव या भाई बहन का स्वाभाविक भाव पैदा होता है। हम भौतिक जगत में रहते हैं। तो ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है कि हमारी भौतिक दृष्टि नहीं बने। आत्मा शरीर और मन के फ्रेम आते ही भौतिक दृष्टिकोण बनने शुरू हो जाते हैं। हालांकि इन सभी दृष्टिकोणों को बनने में करोड़ों अरबों वर्ष लगे होंगे। करोड़ों अरबों वर्ष इसलिए क्योंकि 5000 वर्ष का सृष्टि चक्र कितने करोड़ों बार रिपीट हो गया होगा, इसके कोई आंकड़ा बताए जा सकते। इसलिए हम भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की दृष्टियों को अपना व्यवहारिक स्वरूप बनाकर चलते आए हैं। चूंकि विकास का क्रम है और वही चक्रवत रिपीट होता है, इसलिए वर्तमान में भी हम दोनों दृष्टियों को अपना व्यवहारिक स्वरूप बनाकर चलते हैं। इसलिए ही संतुलन बिगड़ने से पारस्परिक भाई भाई का भ्रातत्व भाव और भाई बहन के भाव में कमी आ जाना एक स्वाभाविक सी बात है। यह है तो है। इसे नियति (विश्व ड्रामा) ही समझें। समता लाने के लिए और भाई बहन की या भाई भाई की आत्मिक भावना लाने के लिए बहु आयामी पुरुषार्थ की आवश्यकता है। तब सही मायने में भैया दूज के अर्थ सार्थक होंगे। आत्मिक पुरुषार्थ में एक खूबी होती है जो कि भौतिक पुरुषार्थ में ना के बराबर कम होती है। आत्मिक पुरुषार्थ भौतिक प्राप्तियों को स्वभावतः जल्दी ही साकार करने की ताकत रखता है। जबकि भौतिक पुरुषार्थ में ऐसा नहीं होता कि वह अध्यात्मिक प्राप्तियों को साकार करने की ताकत रखता हो।*

*भैया दूज का त्यौहार धनतेरस, गोवर्धन और दीवाली के त्यौहारों से पहले नहीं मनाते हैं। इन त्यौहारों के बाद ही भैया दूज का त्यौहार मनाया जाता है। इन सभी त्यौहारों के बाद भैया दूज मनाने का यही मतलब है कि पारस्परिक भ्रतात्व भावना और भाई बहन की भावना लाने के लिए पहले भौतिक शक्ति से और अध्यात्म की शक्ति (आत्मिक प्रकाश) से सम्पन्न बनना अनिवार्य है। यह 3000 वर्षों के पुरुषार्थ से अभी तक तो नहीं हो सका है। पर अब यह निकट भविष्य में ईश्वरीय दिव्य अदृश्य शक्तियों के सहयोग से अवश्यमेव होने वाला है। प्रज्ञा कहती है कि ऊर्जा के परिवर्तन के खेल की सूक्ष्म प्रक्रियाओं के जाल में जहां कोई गणित नहीं होता है, वहां उस मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म जगत में यही अति सूक्ष्म गणित काम करता है।*

*यह समता का भाव, समत्व भाव, भ्रातत्व भाव और भाई बहन का आत्मिक भाव कैसे आयेगा? यह दो तरह से आएगा। पहला - निकट भविष्य सतयुग में सभी आत्माओं की अपनी अपनी सम्पूर्णता की स्थिति होगी। अर्थात् सभी आत्माएं अपनी अपनी सर्व प्राप्तियों की सम्पूर्ण संतुष्ट स्थिति में होंगी। दूसरा - ईश्वरीय राज्य में एक ऐसी स्थिति का सभी आत्माओं के भावनात्माक जगत में आविर्भाव होगा जिसमें सब चीजें बेशर्त भाव से होती रहती हैं। जबकि सतयुग के बाद के समय त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग की जिन भी स्थितियों से हम सभी आत्माएं गुजरी हैं वे स्थितियां बेशर्त के भाव की स्थितियां और अपनी अपनी सर्व प्राप्तियों और संपूर्णता की स्थितियां नहीं थी/नहीं हैं। भौतिक जगत में अपूर्णता और अप्राप्तियोंं में ऐसा नहीं हो सकता। पहले चार स्थितियों से संपन्न हों और उसके बाद भाई बहन का आत्मिक भाव या भाई भाई का भ्रातत्व भाव व्यवहारिक रूप में प्रैक्टिकल स्थायी हो सकता है। अन्यथा इस तरह के झुठलाने और अल्पकाल के झुठलाने वाले प्रयास करने ही पड़ेंगे। इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है। यही तो है भैया दूज का अध्यात्मिक रहस्य। भाई दूज की सबको (खासकर बहनों को) हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार हों। धन्यवाद।*

*In connection with the festival of Bhaiya Dooj, we must remember divine energy and universal laws. The innumerous hands of universe work in the tremendous ways. The invisible universal laws and principles are working and we all are bound to accept and adopt these. In human relations there is an inbuilt secret which is unknown. Nobody knows that secret. That is in fact unknowable. That secret is bound to happen in our lives. We remain detached observer during many ups and downs in relations. Because there are so many things which are beyond our controls. We can just bow down our head to the universal unique, invisible and subtle power. We can just hat's off to the God's invisible power. Certainly we will be witnessing the holistic transformation in near future. Hearty greetings on Bhaiya Dooj.*