...

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" मची तबाही है "
" मची तबाही है "

देख ले ऐ इन्सान अपनी करतूतों को..
जहाँ तक तेरी नज़रें जाएंगी, भीषण मची तबाही है..!
अब , अपनी ही बर्बादी का तू ईनाम ले ले..!

बहुत दोहन कर लिया तूने मेरा , रुदन स्वर में कहा बेचारे प्रकृति ने..!
बहुत अक्लमंद समझते थे न तुम खुद को..
अब देख लो, तुम्हारी कैसी शामत आई है..?

अब तक तू हमें खून के आँसुओं में डुबो रहा था , प्रकृति ने ठहाके लगा कर इठलाई..!
मगर , बेपरवाह, बेग़ैरत मानव , अब हमसे , तुम्हारे लुटने एवं तबीयत से पिटने की बारी आई है..!

चारों ओर जगह-जगह जग में मचा हाहाकार है..!
त्राहि-त्राहि हर धरती का कोना-कोना हुआ बेहाल है..!

अब तक तुम्हारी ज्यादती के शिकार हम ( प्रकृत्ति ) ने सदियों से झेले...