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हां मैं लड़की हूं!

बहुत छोटी थी जब अक्सर गांव की औरते कह दिया करती थीं
सब कितना अच्छा है,पढ़ने में तीनों लड़कियां इतनी अच्छी हैं।
सुंदर भी हैं,पर भगवान ने कितना बुरा किया इनके साथ,बेचारी को एक भाई नहीं दिया।
बेचारी लड़कियां एक भाई हो जाता तो कितना अच्छा होता।

नतीजतन मुझे पुरुषों से नफरत हो गई।और मैं चाह कर भी किसी लड़के से तमीज़ से पेश आने में नाकाम रही ।
मेरे बालक मन को बस इतना समझ आता था की इनकी वजह से मेरे पूरे वजूद को नकारा जा रहा है।मैने वो सब किया जो एक पुरुष कर सकता है। खुद को इस कटघरे से निकल नहीं पाई फिर भी जिसमे लोगों की नजरें मुझे मान लेती हैं की मैं किसी पुरुष से कम हूं।
मैने हमेशा से वो विषय वो कार्य क्षेत्र चुना जिसमे पुरुषों का एकाधिकार रहा और मैं सफल रही अपनी नजरों में उन लोगों की नजरों में नहीं।

वैसे ये बात इतनी बड़ी नहीं लगेगी आपको क्योंकि ये तो होता ही है, और जो होता रहता है वो सब सामान्य माना जाता है।
जैसे दहेज ,बहु बेटी में फर्क, बेटी बेटे में फर्क।
जब भी मैने इस पर लिखा है लोगों का कहना है की अब ऐसा नहीं है।
ये वो लोग हैं जो या तो धरातल से दूर हैं या ये हकीकत को सिरे से नकार कर जीना और खुश रहना पसंद करते हैं।
ये लोग कह देते हैं की अब ऐसा नहीं है, अपने किसी घर के सदस्य की बात बता देंगे की फला ने लड़की के लिए इतनी कोशिश की, एक बच्चे के बाद दूसरा तब तक कोशिश किए जब तक एक लड़की न हो जाए।
वैसे हसी आती है मुझे अब ये सुन कर क्योंकि
इनको समझाना मुश्किल है।
आपने भेद भाव नहीं खत्म किया आपने लिंग बदल दिया उसका।
आप को भेद भाव खत्म करना था जो करने में असफल रहे आप।
किसी एक का चुनाव नहीं करना था दोनो को समान समझना था और जो है उसे अपनाना था।
पर ये क्या अपने फिर से एक को चुनने के लिए दूसरे को ठुकराना सही समझा।
और यही गलत था अभी भी है और हमेशा रहेगा शायद।
वो सारी चीजें जो सीखना जरूरी था किसी लड़की के लिए वो एक लड़के के लिए जरूरी है और ऐसा ही लड़की के लिए भी है।
बराबरी का मतलब कतई नहीं है की दोनो को समान शराब पीने का हक मिले या दोनो जम कर मां बहन की गलियां दें बल्कि ये है की दोनो को जीने का हक मिले अपने हिसाब की जिंदगी। दोनो को सही और गलत एक समान सिखाया जाए।
दोनो को बताया जाए की जरूरी है एक इंसान बनाना एक अच्छा इंसान।


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