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वह सांस चुराने आई थी।🍂
एक प्रलय भयंकर आई थी,
छू कर जग को मुस्काई थी।
खिलते जीवन के सीने से,
वह सांस चुराने आई थी।

हर ओर ही था मातम पसरा,
हर ओर था हाहाकार मचा।
उसके मौन शिकंजे से,
न था कोई परिवार बचा।

ले गई कई तरुवर वृद्ध उड़ा,
कर वज्रपात, तूफान चला।
नव-पादप भी न बच पाए,
तो उनकी थी क्या बिसात भला।

जिसके छूने से झरे पात,
हर कली झुलस मुरझाई थी।
कपटी, कुटिल, क्रूर पंजों से,
वह सांस चुराने आई थी।

था प्राणों को खतरा गहरा,
था सांसों पर मोटा पहरा।
असावधान ज्यों ही दरबान हुआ,
सिर काटा असि अमोघ लहरा।

सब बंद पड़े थे दरवाजे,
दिन में उलूक की आवाजे।
गलियां सुनी घर सन्नाटे,
लोगों ने दिन वो भी काटे।

चहुं ओर रुदन का स्वर गूंजा,
जब चीखों से था दिल दहला।
जैसे जलती है दवानल,
वैसे था जब शमशान जला।

देख लावारिश लाशें सरि में,
जब मानवता शरमाई थी।
श्वान रूप धर मांस नोचने,
वह सांस चुराने आई थी।
© Prashant Dixit 🌿