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घूंघट
आज ही फेसबुक के एक वीडियो में कोई महाशय अपनी राजपूती आन-बान-शान पर न जाने क्या-क्या ज्ञान दे रहे थे, उनका मुख्य मुद्दा यह था कि आज जो पुरुष एनिवर्सरी या जन्मदिन इत्यादि पर अपनी पत्नी के साथ फोटो शेयर करते हैं या उनकी फोटो डालते हैं, यह उनकी राजपूती शान के खिलाफ है,उन्होंने तो अभद्र टिप्पणियों का हवाला दें, इस तरह की शेयरिंग को मर्यादाहीन ही घोषित कर दिया !

सच कहूं तो विचारणीय विषय यह है कि इस शेयरिंग में बुराई क्या है आखिर ?? यदि अभद्र टिप्पणियों की संभावना? तो इसमें प्रथम दृष्टया तो टिप्पणीकर्ता को उचित जवाब देना हुआ न,‌ या आगे से इस तरह की हरकतें ना करने की चेतावनी देना हुआ। इसके अतिरिक्त भी, बेचारे सोशल मीडिया पर, टिप्पणी हटाने, ब्लॉक जैसे विकल्प भी उपलब्ध तो है। और यदि, कोई पढ़ भी लें, तो इसमें एक सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति के अनुसार मर्यादा अभद्र टिप्पणीकर्ता की जायेगी, ना कि उस छायाचित्र की !

मैं इसके पक्ष में नहीं कतई नहीं हूं कि, कोई ऐसी-वैसी गैर मर्यादित अभद्र छायाचित्र डाले जाएं, पर एक मां, बहन या पत्नी की तस्वीर पूर्णतः कैनवास से बाहर कर केवल इसलिए न डालना कि, कोई क्या कहेगा, ये बात तो भला कहां तक उचित है ?

स्त्री जो आपके परिवार का आधार स्तम्भ है, उसकी फोटो अपने संमातर डालना मेरे लिए तो गौरवान्वित विषय है, आज के वर्तमान समय में उस व्यक्ति की सोच मुझे वाकई अजीबोगरीब लगी, और ये लिख इसलिए रही हूं कि, जो भी इस विचार से मेल खाने वाले महापुरुष पढ़ें, वो अंतर्मन में सोचें कि... आप स्वयं के, पुरूषों के चित्र डाले, बिना कोई आपत्ति, और स्त्रियों को छिप कर रहने को कहें, ये कैसा दोगलापन है?

क्या किसी लेडी डॉक्टर को ये कह मरीज के उपचार से रोका जा सकता है कि, यदि किसी घर की स्त्री सब्जी लेने जाएं, तो क्या उसे ये कहकर घर बिठाया जा सकता है कि, बाहर लोग देख लेंगे? और यदि नहीं, तो फ़िर ये फोटो देखने में क्या हर्ज है, भला ??

आज भी समाज में जो घूंघट व्यवस्था है, उसकी वर्तमान प्रांसगिकता मेरी भी समझ से बाहर होने लगती है‌ ! पुराने समय में विदेशी आक्रांताओं, मुगलों इत्यादि से बचने, स्त्रीत्व रक्षा हेतु ये पर्दा/घूंघट रुपी हथियार बना, जबकि इससे पूर्व के हमारे वैदिक साहित्यों में कहीं इसका उल्लेख नहीं मिलता। आज भी हमारे देवी-देवताओं के चित्रों में देवियों को समान श्रद्धा-भाव के समांतर बिना किसी पर्दे के ही देखा जाता है। कभी लक्ष्मी जी या देवी पार्वती को आपने घूंघट में देखा? नहीं ना।
तो जब भगवान ने ही स्त्री को सिर्फ छिपा कर कैद रखने के लिए नहीं बनाया, तो हम और आप क्या कर रहे हैं ??

हालांकि, सामाजिक ताने-बाने को परम्पराओं का नाम देकर बनी कुछेक बेड़ियां, यूं एक झटके में तो संभवतः नहीं तोड़ी जा सकती, पर निसंदेह निरंतर बदलती पीढ़ियों के साथ ये स्वत: ही समाप्ति के कगार की ओर अग्रसर है। उदाहरण स्वरुप मैं तो पालना करूंगी इस प्रथा की भी, परंतु निश्चित रूप से इसका हस्तांतरण अगली पीढ़ी में नहीं होने दूंगी। हालांकि शुरुआत खुद से करें, तो क्रांतिकारी होती है, पर कही-न-कही मानसिकता पारिवारिक-सामाजिक ढ़ांचे में ऐसी ही बनी है कि, स्वयं से शुरुआत को मन नहीं मानता, वो फिर पारिवारिक व्यवस्थाओं के विपरित जा जीतना-सा लगता है। जिस तरह हमारी सोच बदल रही है, संभवतः आने वाली पीढ़ी स्वयं ही ये व्यवस्था ना मानें, और उस न मानने वाली व्यवस्था में, मैं इसकी समर्थक रहूंगी। 🙏

©Mridula Rajpurohit ✍️
🗓️ 30 April, 2022
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