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"चाय की टपरी"
#वोट
चाय की टपरी में आज काफी गहमा गहमी है। बनवारी लाल हाथ में अख़बार लिए पढ़ रहे और हर एक ख़बर पर चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा हो रही थी। जैसे चुनाव के दल, वैसे ही चाय की दुकान भी दो हिस्सों में विभाजित हो गई थी। एक नेता ने चुनाव जीतने पर बिजली मुफ्त की गारंटी का आकर्षक विज्ञापन प्रेषित किया था। एक धड़ा वाह वाह करते हुए उस नेता के समर्थन में, वहीं दूसरा गुट विरोध में था।
तर्क कुतर्क की बारिश हो रही थी और चर्चा अब गरम बहस की तरफ बढ़ रही थी।तभी, अंगीठी में कोयला डाल रहा, टपरी चलाने वाला, बूढ़ा बोला, अरे सुनों! तुम में से कितनों को पता है की मैं ये चाय की दुकान कब से चला रहा हूं? वहां बैठे लगभग सभी लोग, पास के ही गांव के थे। बनवारी बोला, हां हां, चाचा हम तो यहां तब से चाय पी रहे हैं, जब आपके पिताजी ये दुकान चलाते थे और ये बगल वाली दुकान भी, आप लोगों की थी।
सभी ने बनवारी का समर्थन किया क्योंकि यही सच भी था। बूढ़ा बोला, बिलकुल सही और तुम लोगों को पता है की, मेरा एक भाई भी था। हां था बिलकुल था, कल्लू नाम था ना उसका? एक सज्जन बोले। हां , कल्लू ही था और सब काला ही कर गया। सब एक स्वर में बोले, चाचा , पूरी बात विस्तार से बताओ ना ।
बूढ़ा बोला, पिताजी जब बीमार हुए तब उन्होंने इस दुकान के दो हिस्से कर, हम दोनों में बांट दिए और चंद दिनों में चल बसे। उन्हीं दिनों, पास ही में एक सेठ ने लंगर शुरू किया था, जिसमें दोनों समय भोजन मुफ्त मिलता था। बस कल्लू वहीं खाना खाता और इधर उधर घूमता रहता। दुकान खोलता ही नहीं था, सुविधा में कामचोर होता गया। ऐसा चलता रहा और एक दिन उसने अपनी दुकान बेच दी। आज मैं गर्व से अपनी मेहनत से खाता हूं और वह लंगर की सीढ़ियों पर नाक रगड़ता फिरता है। अब तुम सब समझदार हो की आत्मनिर्भर बनना है, या भिखारी, बस उसी हिसाब से अपना मतदान करना।
सभी की आंखे नम थी और बहस और टपरी दोनों अब सन्नाटे में बदल चुकी थीं।

© क्यों हो pankaj
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