Thank You Diwali.....
हर सुबह की तरह आज भी सूरज सर पे आ गया था । खिड़की से आती सूरज की किरणों ने मेरे चेहरे को थोड़ी देर के लिए रोशन कर दिया था । पर शायद ऐसै रोशन होना मेरी नींद को अच्छा नहीं लगा और उठ के मैंने खिड़की को जोर का धक्का देते हुए बंद कर दी।
फिर से सोने की कोशिश की पर इस बार मोबाइल पर आ रहे मेसेज ने निंद के दरवाजे पे दस्तक दे दी। हलकी आँखे खोलते हुए मोबाइल डाटा को बंद करके थोड़ी ख़ुशी महसूस की और चद्दर में लिपट के सपनो की दुनिया की सेहर करने लगा।
पर पता नी आज मेरा सोना किसी को अच्छा नी लग रहा था। फ़ोन जोर-जोर से बजने लगा। चद्दर से हाथ बाहर निकाल के फ़ोन उठाया।हैप्पी दीवाली भाई" दूसरी तरफ से आवाज आयी। जानी-पहचानी वही बचपन की आवाज जो हर सुबह स्कूल जाने के वक़्त मेरे घर के बहार से आती थी। मेरे बचपन के साथी की आवाज, "आदित्य" की।
एक पल को जैसे वक़्त थम सा गया था। वो हेल्लो हेल्लो करता रहा पर मेरी जुबां जैसे अटक गयी थी। वक़्त मानो बचपन के उन गलियारों में ले गया था, जहाँ हम सब के मुस्कुराते हुए चेहरे दिख रहे थे। तभी अचानक ध्यान उसकी आवाज पे गया। मेरी निंद अब पूरी तरह उड़ गयी।
"कहा खो गया, कुछ बोलेगा भी या अब भी नाराज हैं ?" थोडा जोर देते हुए उसने पूछा ।
"नहीं यार नाराज किस बात से, बाय द वे हैप्पी दिवाली, आज तू जीत गया ।"
बचपन में हर दिवाली पे सुबह जो पहले उठता था उसे अगले दिन पैसे मिलने पे ट्रीट मिलती थी । हमेशा मैं ही जीता करता था। पर इस बार तो याद भी नी रहा की आज दिवाली हैं। क्या वक़्त के साथ-साथ मैं इतना आगे निकल आया था की आज का दिन भी याद नहीं रहा ? इस बड़े शहर और काम की दौड़ भाग में सब कुछ पीछे छुट गया था, वो सपने, वो अपने सब कुछ ।
5 साल बाद किसी अपने की आवाज सुन रहा था। माँ-बाबा के गुजरने के बाद गाँव की तरफ कभी रुख नी किया। और करता भी किस हक़ से, अब कोई भी तो नि बचा था अपना वहा। कहा जाता हैं की जब तक माँ हैं तब तक हैं मामा और बाबा(पापा) तब तक चाचा-ताऊ । उनके गुजर जाने के बाद रिश्तो में दूरियां सी हो गयी थी। रिश्तो की मिठास कही खोने लगी थी।
कॉलेज के अन्तिम वर्ष में था तब वो गुज़र गए थे और तब से खुद को अकेलेपन में जीना सिखा लिया था। इन पाँच सालो में कही मौके आये जब मैंने घर जाना चाहा, सबसे मिलना चाहा । पर कभी किसी ने आने का न्यौता ही नी दिया। हर साल दिवाली, होली, रक्षाबंधन और ऐसे कही त्यौहार आये और चले गए, पर मैंने इन सब को बस पुराने फ़ोटो देख के निकाले थे। पाँच साल बाद इस फ़ोन कॉल ने सारी पुरानी यादों को ताज़ा कर लिया था। मन ही मन ख़ुशी हो रही थी की कही कोई तो हैं जिसे मैं याद हूँ।
धीरे-धीरे बातो का सिलसिला शुरू हुआ। इधर-उधर की बाते की और फिर अचानक वो किसी बात को बोलते-बोलते अटक गया । कही बार पूछने पे वो हलकी दबी आवाज में बोला "तुझे पता हैं मैंने सगाई कर ली हैं ?"
कही सालो के बाद दिल ख़ुशी से झूम रहा था ये सुन के । उसकी बात सुनके मुझे किसी की याद आ गयी पर फिर उसकी बात पे ध्यान देते हुए उससे पूछा " तो शादी कब हैं ? शादी पे तो बुलाएगा ना या तू भी सबकी तरह....?"
"बुलाना नहीं होता तो फ़ोन नहीं करता। तुझे आज भी कोई नहीं भुला पागल, बस थोड़ी दुरिया हो गयी हैं । जिसकी वजह से सबको सामने से बात करने में शर्म आ रही हैं। सब लोग तुझसे मिलना चाहते हैं।"
मैंने अनसुना करते हुए कहा "और बता सब कैसा चल रहा है ।"
"सब लोग तेरे सडू जोक्स सुनने को तरस गए हैं। गलतफैमी हो गयी थी सबको, सब भूल जा यार। नयी शुरुआत करते हैं, एक नयी दोस्ती?" मायुस आवाज में कहके मेरे जवाब का इंतज़ार करता रहा।
"कब आना हैं ?" आँखों में आँशु और होंठो पे मुश्कान के साथ सिसकियां लेते हुए मैंने पूछा।
जाने की तारीख भी फिक्स हो गयी थी। ट्रेन में चढ़ने से पहले मन भारी हो गया था। खुद से पूछ रहा था "क्यों जा रहा हूँ उन लोगो के बिच जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी के सबसे कठिन वक़्त में मुझे परायो/अनजान की तरह अकेले छोड़ दिया था।" फिर मुझे मेरे बाबा की एक बात याद आयी। वो हमेशा कहते थे "कभी अपनी तरफ से रिश्तों को मत तोडना और हो सके तो सामने वालो की गलतिया माफ़ करके रिश्तों को प्यार की ओढ़ में बचा के रखना।" बस इसी बात को याद करके मैंने सब कुछ भूल के नयी शुरुआत की सोची।
मन बड़ा चँचल होता हैं। अभी तो बस ट्रेन में बेठा ही था की मन तो उन गलियो में घूमने लगा था। उन छतों पे कोमल पाँव लिए दौड़ रहा था, ट्रेन की रफ़्तार से भी कही तेज़। "खुशियो की लहरे मेरे दिल के किनारे पे आ-आ के वापस लौट रही थी"। कहते हैं ज़िन्दगी बहुत कठिन हैं, मैं भी ऐसा ही मानता था। पर फर्क आपके नज़रिये में हैं, आप कैसे जीना चाहते हो, उसमे हैं।
काफी समय बीतने के बाद ट्रेन एक स्टेशन पे जाके रुकी। एक पुराने, आधे टूटे हुए, जंग खा रहे बोर्ड पे मेरे गाँव का नाम लिखा था। एक पल के लिए आँखे झपकनि बंद हो गयी और यादों के मोती पलकों को भिगोते हुए किसी के पाँवो के निचे दब गए।
बचपन में जब भी कभी बाहर जाना होता या बाबा को छोड़ने आता तब उछंल के उस बोर्ड को चुने की कोशिश करता और हर बार बाबा मुझे उठाते और फिर मैं आराम से उसे चु लेता। पर आज मुझे उछलने की जरूरत नहीं थी। पर मन कह रहा था की मैं उचलुं और फिर बाबा आये मेरी मदद करने।
दरसल मुझे आज बोर्ड को चुने की चाह नहीं थी बल्कि बाबा को देखने के लिए दिल टूटे जा रहा था।
यादों में खोया उस बोर्ड को ही निहारे जा रहा था। एक आवाज ने मेरा ध्यान तोड़ दिया। "वेलकम बेक डिअर" मेरे पीछे खड़े आदित्य ने कहा। उसके साथ बचपन के सारे दोस्त और मेरे कजिन खड़े थे। कॉर्पोरेट और स्टॉक मार्किट की दुनिया को छोड़ के मैं अपनी दुनिया में आ गया था। जहा कोई लॉस-प्रॉफिट नहीं था, बस खुशियो की सौगात थी। इतने सालो के बाद घर लौटा था। अपना सबसे पसिंदा त्यौहार सबके साथ मना रहा था। ये दिवाली अपने साथ-साथ मेरी खुशियां भी ले आई थी।
थैंक यू दीवाली & हैप्पी दीवाली
@unwritetalks
@AtulPurohit
फिर से सोने की कोशिश की पर इस बार मोबाइल पर आ रहे मेसेज ने निंद के दरवाजे पे दस्तक दे दी। हलकी आँखे खोलते हुए मोबाइल डाटा को बंद करके थोड़ी ख़ुशी महसूस की और चद्दर में लिपट के सपनो की दुनिया की सेहर करने लगा।
पर पता नी आज मेरा सोना किसी को अच्छा नी लग रहा था। फ़ोन जोर-जोर से बजने लगा। चद्दर से हाथ बाहर निकाल के फ़ोन उठाया।हैप्पी दीवाली भाई" दूसरी तरफ से आवाज आयी। जानी-पहचानी वही बचपन की आवाज जो हर सुबह स्कूल जाने के वक़्त मेरे घर के बहार से आती थी। मेरे बचपन के साथी की आवाज, "आदित्य" की।
एक पल को जैसे वक़्त थम सा गया था। वो हेल्लो हेल्लो करता रहा पर मेरी जुबां जैसे अटक गयी थी। वक़्त मानो बचपन के उन गलियारों में ले गया था, जहाँ हम सब के मुस्कुराते हुए चेहरे दिख रहे थे। तभी अचानक ध्यान उसकी आवाज पे गया। मेरी निंद अब पूरी तरह उड़ गयी।
"कहा खो गया, कुछ बोलेगा भी या अब भी नाराज हैं ?" थोडा जोर देते हुए उसने पूछा ।
"नहीं यार नाराज किस बात से, बाय द वे हैप्पी दिवाली, आज तू जीत गया ।"
बचपन में हर दिवाली पे सुबह जो पहले उठता था उसे अगले दिन पैसे मिलने पे ट्रीट मिलती थी । हमेशा मैं ही जीता करता था। पर इस बार तो याद भी नी रहा की आज दिवाली हैं। क्या वक़्त के साथ-साथ मैं इतना आगे निकल आया था की आज का दिन भी याद नहीं रहा ? इस बड़े शहर और काम की दौड़ भाग में सब कुछ पीछे छुट गया था, वो सपने, वो अपने सब कुछ ।
5 साल बाद किसी अपने की आवाज सुन रहा था। माँ-बाबा के गुजरने के बाद गाँव की तरफ कभी रुख नी किया। और करता भी किस हक़ से, अब कोई भी तो नि बचा था अपना वहा। कहा जाता हैं की जब तक माँ हैं तब तक हैं मामा और बाबा(पापा) तब तक चाचा-ताऊ । उनके गुजर जाने के बाद रिश्तो में दूरियां सी हो गयी थी। रिश्तो की मिठास कही खोने लगी थी।
कॉलेज के अन्तिम वर्ष में था तब वो गुज़र गए थे और तब से खुद को अकेलेपन में जीना सिखा लिया था। इन पाँच सालो में कही मौके आये जब मैंने घर जाना चाहा, सबसे मिलना चाहा । पर कभी किसी ने आने का न्यौता ही नी दिया। हर साल दिवाली, होली, रक्षाबंधन और ऐसे कही त्यौहार आये और चले गए, पर मैंने इन सब को बस पुराने फ़ोटो देख के निकाले थे। पाँच साल बाद इस फ़ोन कॉल ने सारी पुरानी यादों को ताज़ा कर लिया था। मन ही मन ख़ुशी हो रही थी की कही कोई तो हैं जिसे मैं याद हूँ।
धीरे-धीरे बातो का सिलसिला शुरू हुआ। इधर-उधर की बाते की और फिर अचानक वो किसी बात को बोलते-बोलते अटक गया । कही बार पूछने पे वो हलकी दबी आवाज में बोला "तुझे पता हैं मैंने सगाई कर ली हैं ?"
कही सालो के बाद दिल ख़ुशी से झूम रहा था ये सुन के । उसकी बात सुनके मुझे किसी की याद आ गयी पर फिर उसकी बात पे ध्यान देते हुए उससे पूछा " तो शादी कब हैं ? शादी पे तो बुलाएगा ना या तू भी सबकी तरह....?"
"बुलाना नहीं होता तो फ़ोन नहीं करता। तुझे आज भी कोई नहीं भुला पागल, बस थोड़ी दुरिया हो गयी हैं । जिसकी वजह से सबको सामने से बात करने में शर्म आ रही हैं। सब लोग तुझसे मिलना चाहते हैं।"
मैंने अनसुना करते हुए कहा "और बता सब कैसा चल रहा है ।"
"सब लोग तेरे सडू जोक्स सुनने को तरस गए हैं। गलतफैमी हो गयी थी सबको, सब भूल जा यार। नयी शुरुआत करते हैं, एक नयी दोस्ती?" मायुस आवाज में कहके मेरे जवाब का इंतज़ार करता रहा।
"कब आना हैं ?" आँखों में आँशु और होंठो पे मुश्कान के साथ सिसकियां लेते हुए मैंने पूछा।
जाने की तारीख भी फिक्स हो गयी थी। ट्रेन में चढ़ने से पहले मन भारी हो गया था। खुद से पूछ रहा था "क्यों जा रहा हूँ उन लोगो के बिच जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी के सबसे कठिन वक़्त में मुझे परायो/अनजान की तरह अकेले छोड़ दिया था।" फिर मुझे मेरे बाबा की एक बात याद आयी। वो हमेशा कहते थे "कभी अपनी तरफ से रिश्तों को मत तोडना और हो सके तो सामने वालो की गलतिया माफ़ करके रिश्तों को प्यार की ओढ़ में बचा के रखना।" बस इसी बात को याद करके मैंने सब कुछ भूल के नयी शुरुआत की सोची।
मन बड़ा चँचल होता हैं। अभी तो बस ट्रेन में बेठा ही था की मन तो उन गलियो में घूमने लगा था। उन छतों पे कोमल पाँव लिए दौड़ रहा था, ट्रेन की रफ़्तार से भी कही तेज़। "खुशियो की लहरे मेरे दिल के किनारे पे आ-आ के वापस लौट रही थी"। कहते हैं ज़िन्दगी बहुत कठिन हैं, मैं भी ऐसा ही मानता था। पर फर्क आपके नज़रिये में हैं, आप कैसे जीना चाहते हो, उसमे हैं।
काफी समय बीतने के बाद ट्रेन एक स्टेशन पे जाके रुकी। एक पुराने, आधे टूटे हुए, जंग खा रहे बोर्ड पे मेरे गाँव का नाम लिखा था। एक पल के लिए आँखे झपकनि बंद हो गयी और यादों के मोती पलकों को भिगोते हुए किसी के पाँवो के निचे दब गए।
बचपन में जब भी कभी बाहर जाना होता या बाबा को छोड़ने आता तब उछंल के उस बोर्ड को चुने की कोशिश करता और हर बार बाबा मुझे उठाते और फिर मैं आराम से उसे चु लेता। पर आज मुझे उछलने की जरूरत नहीं थी। पर मन कह रहा था की मैं उचलुं और फिर बाबा आये मेरी मदद करने।
दरसल मुझे आज बोर्ड को चुने की चाह नहीं थी बल्कि बाबा को देखने के लिए दिल टूटे जा रहा था।
यादों में खोया उस बोर्ड को ही निहारे जा रहा था। एक आवाज ने मेरा ध्यान तोड़ दिया। "वेलकम बेक डिअर" मेरे पीछे खड़े आदित्य ने कहा। उसके साथ बचपन के सारे दोस्त और मेरे कजिन खड़े थे। कॉर्पोरेट और स्टॉक मार्किट की दुनिया को छोड़ के मैं अपनी दुनिया में आ गया था। जहा कोई लॉस-प्रॉफिट नहीं था, बस खुशियो की सौगात थी। इतने सालो के बाद घर लौटा था। अपना सबसे पसिंदा त्यौहार सबके साथ मना रहा था। ये दिवाली अपने साथ-साथ मेरी खुशियां भी ले आई थी।
थैंक यू दीवाली & हैप्पी दीवाली
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