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सुहागन की बिंदी
बाहर फेरीवाला आया हुआ था। कई तरह का सामान लेकर---बिंदिया, काँच की चूड़ियाँ, रबर बैण्ड, हेयर बैण्ड, कंघी, काँच के और भी बहुत सारे सामान थे। आस-पड़ोस की औरतें उसे घेर कर खड़ी हुई थीं।
काफी देर तक बाबा गेट पर अपनी लाठी टेककर खड़े रहे। जैसे ही औरतों की भीड़ छँटी, बाबा अपनी लाठी टेकते हुए फेरी वाले के पास पहुँच गए और उस का सामान देखने लगे।शायद वे कुछ ढूँढ रहे थे। कभी सिर ऊँचा करके देखते, कभी नीचा। जो देखना चाह रहे थे, वह दिख नहीं रहा था।
हैरान परेशान बाबा को फेरी वाले ने देखा तो पूछा---"कुछ चाहिए था क्या बाबा आपको ?"
पर बाबा ने सुनकर अनसुना कर दिया। धीरे-धीरे लाठी टेकते हुए फेरी के ही चक्कर लगाने लगे। कहीं तो दिखे वो, जो वे देखना चाह रहे हैं। फेरी वाले ने दोबारा पूछा---"बाबा कुछ चाहिए था क्या ?"
अब की बार बाबा ने फेरीवाले से कहा --"हाँ बेटा!"
क्या चाहिए ?-- बताओ मुझे, मैं ढूँढ देता हूँ।"
"मुझे ना--वो बिंदिया चाहिए थी।"
"बिंदिया क्यों चाहिए बाबा ?"
बाबा ने अम्मा की तरफ इशारा करते हुए बताया---"अरे! मेरी पत्नी के लिए चाहिए।
बाबा का जवाब सुनकर फेरीवाला हँस दिया। "किस तरह की बिंदिया चाहिए?"
"बड़ी-बड़ी गोल बिंदिया चाहिए। बिल्कुल लाल रंग की।"
फेरीवाले ने बिंदिया का पैकेट निकाल कर दिया--यह देखो बाबा, ये वाली ?"
"अरे, नहीं--नहीं, ये वाली नहीं।बिल्कुल लाल सी।"
फेरीवाले ने वो पैकेट रख लिये और दूसरा पैकेट निकाल कर दिखाया--"बाबा ये वाली ?"
"अरे तुझे समझ में नहीं आता क्या?...