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खेल और युवा
जैसा की हम सभी जानते हैं हमारे देश में युवाओं की संख्या सबसे अधिक है, ऐसा कहते हैं जिस देश में जितने ज्यादा युवा हो वह देश उतना ही अधिक मजबूत होता है ।
विज्ञान का मानना है की खेल हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है ;
मनुष्य जितना ज्यादा खेल खेलता है उतना ही उसका मन मस्तिष्क स्वस्थ रहता है ;
वैसे ही जिस देश में जितने ज्यादा युवा होते हैं वह देश उतना ही मजबूत और विकासशील रहता है किंतु, युवा होने के साथ-साथ देश में उन युवाओं को अपने कर्तव्य का बोध भी होना चाहिए
अन्यथा वह युवा उस देश को बर्बाद भी कर सकते हैं ।
उदाहरण के लिए यदि देश का युवा आलसी हो जाएगा तो उस देश का पतन निश्चित है ,
इसीलिए हर देश में उनके पूर्वजों द्वारा ऐसे खेलों की स्थापना की जाती थी ;
जिसके तहत उस देश के युवा उन खेलों के माध्यम से अपने मन मस्तिष्क को स्वस्थ रख सकें और आलस्य नामक शत्रु से स्वयं की और देश की रक्षा कर सकें।
इसका उदाहरण है – गुप्तकालीन शतरंज ।
शतरंज एक बहुत ही लोक प्रसिद्ध खेल है जो हमारे मस्तिष्क को बहुत अधिक सोचने के लिए प्रोत्साहित करता है;
जिसके कारण हम अपने मस्तिष्क के वास्तविक क्षमता को समझने में सफल होते हैं ऐसे ही बहुत सारे खेल हैं जो हमारे विभिन्न क्षमताओं को बढ़ाते हैं और हम अपने अंदर के वास्तविक क्षमता को इन्हीं खेलों के माध्यम से जान पाते हैं ।
यह खेल एक प्रतिस्पर्धा के माध्यम से किया जाता है जिससे हमारे अंदर की चाह और उत्सुकता उत्सुकता दोनों ही बढ़ जाती है और हम कठिन मेहनत और सूझबूझ के साथ उत्कृष्ट प्रदर्शन करने की क्षमता अपने अंदर विकसित करने में कामयाब होते हैं।
इसीलिए हमारी सरकार ने सालों पहले युवा खेल महोत्सव का आयोजन किया सरकार को कहीं ना कहीं पता था कि यदि ऐसे खेल होते रहेंगे तभी हम अपनी युवाओं की शक्ति का समुचित प्रयोग अपने देश के विकास में कर पाएंगे।
यदि युवा आलस्य रहित होकर काम नहीं करेंगे तो उनके इस शक्ति का क्या लाभ।
इसीलिए ऐसे खेल समय-समय पर आयोजित किए जाते हैं जिसके कारण हमारे देश का युवा अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा पाए और देश के विकास में सतत प्रयास करता रहे;
इसीलिए हमारे पूर्वजों ने विरासत के रूप में एक उत्कृष्ट उपहार हमको दिया है जो खेल है इसीलिए खेल और युवा दोनों ही इस देश के प्रगतिशील होने में सहायक हैं अतः हमें हमारे विरासत को संजो कर रखना होगा ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी भी प्रगति की ओर बढ सके।।

लेखक—- अरुण कुमार शुक्ल