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कुछ था जो पीछे रह गया
कुछ था जो पीछे रह गया

अबकी बार वापसी में एक पुरानी ईंट लेकर आया हूं ..... !

अरे वही वाली ईंट जो हमारे उसी स्कूल की दीवारों पर कभी चिना हुआ करता जहां हम साथ- साथ पढ़ा करते ! उस गिरती मीनार से बड़ी मशक्कत के बाद वही वाली ईंट निकाल लाया हूं जिसपर स्कूल की घंटी लटकी रहा करती और जिसकी रोजाना की धमक से न जाने कितने सालों से वो घिसती सी जा रही थी । अब स्कूल ख़त्म हो चुका है ! पूरी तरह जर्जर! एक ठेकेदार को कबाड़ के हिसाब से सस्ते में पूरा स्कूल बेचा गया है। ईंट, पत्थर और सबकुछ ! लकड़ियों के पुराने दरवाज़े और खिड़कियां तक को एक ही कीमत पर समेट दिया गया है । बेचने वाले को न तो कीमत पता थी और न ही खरीदने वाले को इसकी अहमियत !

हर बार छुट्टियों में उस पुराने बंद स्कूल के पास चंद वक्त गुजारा करता हूं ...अकेले और बिलकुल अकेले ! अब भी धुंधले अक्षरों में स्कूल का नाम साफ़ दिख जाता है - " बाल विद्यापीठ, बड़ा बाज़ार, कटिहार " । अब शायद अगली बार कुछ भी न देख पाऊं! इसलिए बड़ी कोशिशों के बाद यह ईंट खुद उखाड़ लाया हूं ! मुझे लगता है इस ईंट ने उन तमाम स्पंदन को अपने भीतर समेटे रखा होगा जिसे हम बार - बार महसूस करना चाहते हैं ! अपने कानों से लगाकर सबकुछ सुना है मैंने ! वो शोर , वो कोलाहल और फिर अचानक शांति और फिर खुसर - पुसर से आरंभ होता हो - हो ! बीच - बीच में हेड सर की गूंजती कड़क आवाज ! पुराने पंखों की घड़घड़ाती आवाज ! प्रार्थनाओं की गूंज ! सबकुछ साफ़ सुनाई देता है । कौन कहता है ईंटों में जान नहीं होती ? वो सबकुछ होता है उनमें भी जो हमारे भीतर छिपा है। ऐसे ही बिन कहे पूरा किस्सा बयां नहीं कर देते ये मौन खड़े पुराने ईंट और पत्थर!
© राजू दत्ता