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मंजिल और रास्ता
सदियों से चल‌ रही थी जिन रास्तों पर, आज मंज़िल के क़रीब आके पता चला कि ना ये मंज़िल हमारी है और ना ये राह सही है, पर कैसे भुला दें इस मंज़िल को जिसके लिए हमने सदियों का सफ़र तैं किया?
कैसे भूल जाएं इसे इसकी खातिर थकने के बाद भी चलती रही।
और भला कैसे बदल दे इस राह को, इसपे चलकर ही तो मंज़िल के क़रीब आये है।
अब हमें इस राह से प्यार हो गया है।
इसके हर मोड़ से प्यार हो गया है।
हर पत्थर जिससे ठोकर खाई है उस से प्यार हो गया है। ठोकर खाई पर चलने का हौसला भी तो इसने ही दिया है।
इस राह के हर कांटे ने ज़ख़्म दिया है, पर उस ज़ख़्म की लज़्ज़त ही कुछ अलग थी। आज हर ज़ख्म अच्छा लगता है और दिल बस यही कहता है।

मंज़िल पाने के लिए जिस राह पे चले अब उस राह से मोहब्बत हो गई है,
और उस राह से मोहब्बत हो गई है इसलिए अब मंज़िल पाना चाहते है।

© sheenam


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