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भय ..एक छलावा
एक परम सिद्ध महात्मा प्रात: भ्रमण के लिए आश्रम से बाहर निकले ।प्रात: ब्रहृ मुहुर्त की अमृत वेला थी और सूर्योदय हुआ नहीं था तो सब तरफ अंधकार था ।
उस अंधकार में महात्मा ने किसी काली छाया को बस्ती की तरफ जाते देखा तो महात्मा ने पुकारा- कौन है, किधर जा रहा है ?
वह काली छाया रुकी और प्रणाम करते हुए बोली- हे महात्मा! आप निस्संदेह कोई दिव्यचक्षु प्राप्त सिध्द महान आत्मा है तभी मुझे देख सके क्योंकि मनुष्य योनि का प्राणी तो मुझे देख पाने वाली दृष्टि नहीं रखता ही नहीं है। हे तातश्री ! मैं मृत्यु हूं और इस बस्ती में जा रहीं हूं । वहां प्लेग रोग फैल रहा है और लगभग एक हजार जीवात्माओं को ले जाने का आदेश मिला है मुझे । इतना कहकर मृत्यु ने महात्मा को प्रणाम किया और बस्ती की ओर चली गई। महात्मा भ्रमण के लिए चल दिए ।
शाम तक मौत लौटने लगी तो उसका फिर से महात्मा से सामना हो गया । महात्मा ने उलाहना दिया- तुमने तो सुबह कहा था कि हजार जानें ले जाओगी पर सुना है कि तीन हजार से ज्यादा लोग मरे हैं । तुम्हें भी मृत्युलोक की हवा लग गई क्या ? मौत हाथ जोड़कर बोली - हे तातश्री! ऐसा न कहें । मैंने तो हजार लोगों को मारा है बाकी तो भय के कारण मारे गए, मैंने नहीं मारा उनको । भयभीत लोग तो अधमरे होते ही है । इस विपदा से जरा ज्यादा भयभीत हो गए और बेमौत मारे गए ।

टिप्पणी : प्रस्तुत कथा मेरी नहीं
है । मैंने भी कहीं पढ़ी है, बेवजह भय का परिणाम क्या होता है ? ....असरदार तरीके से दर्शाती है । कथा का सार मेरे अनुभव से भी मेल खाता है ।
अक्सर भय, वास्तविक परिस्थिति से भी अधिक भयानक हौव्वा खड़ा कर देता है ।
पर यह एक मात्र छलावा से अधिक कुछ नहीं होता। आवश्यकता है उस भय का सामना करने की... उसकी आंखों में आंखें डालकर दैखने की.. उसको समझने की...न कि उससे भयभीत होकर उसके सामने आत्मसमर्पण कर देने की ।
जिस दिन हम ऐसा कर पायेंगे उस दिन भय वैसे ही आस्तित्वहीन हो जाएगा जैसे प्रकाश के सामने अंधेरा ।
इस लेख के माध्यम से आपसे संवाद का अवसर मिला इसका बहुत ही हर्ष हुआ। आगे भी यह संवाद जारी रहे यही कामना है....

२१.११.२०२०, ॐ साईं राम
© aum 'sai'