स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है
मैं बचपन में हिंदी वर्णमाला के 'चार' अक्षर ग़लत बोलती थी....। ग़लत बोलने का अर्थ सीधा है- 'तुतलाना'।
जी! बहुत लोगों को नहीं पता मगर मैं दसवीं कक्षा तक तुतलाती थी।
जहाँ इस वज़ह से मुझे परिचित-अपरिचित से बहुत प्यार मिला है वहीं ज़्यादा तो नहीं, मगर यह चार अक्षर ही बहुत थे मेरा मज़ाक बनाने के लिए।
मुझे लेशन रीड करना बहुत पसंद था। कारण सीधा सा था की मुझे हिंदी, संस्कृत या अंग्रेजी पढ़ने में तकलीफ़ नहीं होती थी। मैं कठिन शब्दों में भी ना के बराबर ही अटकती थी। क्योंकि मैं पढ़ाई में अच्छी थी और टीचर्स की फेवरेट भी इसलिए दसवीं तक आते-आते मैं कई बार क्लास मॉनिटर बनी। क्लास मॉनिटर का जो काम होता है मैंने वही किया और इस कारण क्लास के कुछ शैतान बच्चों को मुझसे समस्या रहने लगी। नतीजतन दसवीं कक्षा में उन बच्चों ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया.. परेशान करने के लिए और कोई रास्ता तो मिला नहीं इसलिए उन्होंने मुझे मेरे तुतलाने पर चिढ़ाना शुरू किया। अब मेरे लिए क्लास का माहौल बदलने लगा था। मैं जब लेशन रीड करती तो कानाफूसी होने लगती। कोई कहता "देख-देख अब ये ग़लत पढ़ेगी"। तो कोई जानबूझकर उन शब्दों पर टोककर मुझे दोहराने के लिए कहता और फिर हँसने की आवाज़ें आने लगती। यह सब करने वाले केवल चार-पाँच ही बच्चे थे.. लेकिन फिर भी मेरे लिए उनको नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन था। वह लोग जब मुझे इस तरह से परेशान करते तो टीचर्स उनको...
जी! बहुत लोगों को नहीं पता मगर मैं दसवीं कक्षा तक तुतलाती थी।
जहाँ इस वज़ह से मुझे परिचित-अपरिचित से बहुत प्यार मिला है वहीं ज़्यादा तो नहीं, मगर यह चार अक्षर ही बहुत थे मेरा मज़ाक बनाने के लिए।
मुझे लेशन रीड करना बहुत पसंद था। कारण सीधा सा था की मुझे हिंदी, संस्कृत या अंग्रेजी पढ़ने में तकलीफ़ नहीं होती थी। मैं कठिन शब्दों में भी ना के बराबर ही अटकती थी। क्योंकि मैं पढ़ाई में अच्छी थी और टीचर्स की फेवरेट भी इसलिए दसवीं तक आते-आते मैं कई बार क्लास मॉनिटर बनी। क्लास मॉनिटर का जो काम होता है मैंने वही किया और इस कारण क्लास के कुछ शैतान बच्चों को मुझसे समस्या रहने लगी। नतीजतन दसवीं कक्षा में उन बच्चों ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया.. परेशान करने के लिए और कोई रास्ता तो मिला नहीं इसलिए उन्होंने मुझे मेरे तुतलाने पर चिढ़ाना शुरू किया। अब मेरे लिए क्लास का माहौल बदलने लगा था। मैं जब लेशन रीड करती तो कानाफूसी होने लगती। कोई कहता "देख-देख अब ये ग़लत पढ़ेगी"। तो कोई जानबूझकर उन शब्दों पर टोककर मुझे दोहराने के लिए कहता और फिर हँसने की आवाज़ें आने लगती। यह सब करने वाले केवल चार-पाँच ही बच्चे थे.. लेकिन फिर भी मेरे लिए उनको नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन था। वह लोग जब मुझे इस तरह से परेशान करते तो टीचर्स उनको...