...

10 views

स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है
मैं बचपन में हिंदी वर्णमाला के 'चार' अक्षर ग़लत बोलती थी....। ग़लत बोलने का अर्थ सीधा है- 'तुतलाना'।
जी! बहुत लोगों को नहीं पता मगर मैं दसवीं कक्षा तक तुतलाती थी।
जहाँ इस वज़ह से मुझे परिचित-अपरिचित से बहुत प्यार मिला है वहीं ज़्यादा तो नहीं, मगर यह चार अक्षर ही बहुत थे मेरा मज़ाक बनाने के लिए।
मुझे लेशन रीड करना बहुत पसंद था। कारण सीधा सा था की मुझे हिंदी, संस्कृत या अंग्रेजी पढ़ने में तकलीफ़ नहीं होती थी। मैं कठिन शब्दों में भी ना के बराबर ही अटकती थी। क्योंकि मैं पढ़ाई में अच्छी थी और टीचर्स की फेवरेट भी इसलिए दसवीं तक आते-आते मैं कई बार क्लास मॉनिटर बनी। क्लास मॉनिटर का जो काम होता है मैंने वही किया और इस कारण क्लास के कुछ शैतान बच्चों को मुझसे समस्या रहने लगी। नतीजतन दसवीं कक्षा में उन बच्चों ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया.. परेशान करने के लिए और कोई रास्ता तो मिला नहीं इसलिए उन्होंने मुझे मेरे तुतलाने पर चिढ़ाना शुरू किया। अब मेरे लिए क्लास का माहौल बदलने लगा था। मैं जब लेशन रीड करती तो कानाफूसी होने लगती। कोई कहता "देख-देख अब ये ग़लत पढ़ेगी"। तो कोई जानबूझकर उन शब्दों पर टोककर मुझे दोहराने के लिए कहता और फिर हँसने की आवाज़ें आने लगती। यह सब करने वाले केवल चार-पाँच ही बच्चे थे.. लेकिन फिर भी मेरे लिए उनको नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन था। वह लोग जब मुझे इस तरह से परेशान करते तो टीचर्स उनको डांटते.. क्लास के बाकी बच्चे भी ख़ामोश रहकर ही सही मगर कहीं ना कहीं मेरा समर्थन ही करते। लेकिन इतना करना भी बहुत नहीं था। उन शैतान बच्चों ने मुझे चिढ़ाना जारी रखा और इतना बहुत था मेरा आत्मविश्वास कम करने के लिए। अब जिन्हें नहीं भी पता था वो भी जान गए थे।
घर जाते समय छुट्टी में चिल्ला-चिल्लाकर मेरा अपमान करना या मुझ पर हँसना आम हो गया था। उनके चुभते शब्द कभी मुझे दुःखी करते, तो कभी मुझे रुला दिया करते थे.. और उनके लिए सामान्य बात थी.. मगर मेरे लिए यह सब सामान्य नहीं था। अब लेशन रीड करने के नाम से ही मैं बहाने बनाने लगती.. मैं प्रार्थना करती की मेरा नम्बर आने से पहले ही क्लास ख़त्म हो जाए। याद होते हुए भी सवालों का जवाब देना मुझे बहुत मुश्किल लगने लगा था और सच कहूँ तो मुझे स्कूल जाने के नाम से ही रोना आने लगता था। कभी-कभी ना जाने का बहाना भी बना दिया करती थी, मगर ऐसा रोज नहीं हो सकता था। धीरे- धीरे मेरा मनोबल कम होने लगा। जैसे-जैसे मेरा मज़ाक बनना बढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा आत्मविश्वास दम तोड़ने लगा। ना मुझे खेलना अच्छा लगता था और ना ही किसी से बात करना। बहुत कोशिशों के बाद भी मैं गुमसुम रहने लगी। मैं स्कूल नहीं जाना चाहती थी.. शायद कभी नहीं! रोज-रोज स्वयं का अपमान सहन करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं होता। मुझे परेशान करने वाले बच्चे ना तो पढ़ाई में अच्छे थे और ना ही किसी अन्य गतिविधि में।
मगर स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है।
एक दिन क्लास के बाद अलग बुलाकर एक सर ने मुझसे सवाल किया "आप तुतलाते हो"?.. मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस मुस्कुरा दी.. हाँ! मगर आँखें भीग चुकी थी। तब तक उन्हें मेरी सहेली ने जवाब दिया.. नहीं!
मुझे नहीं पता उसने झूठ क्यों कहा.. ना मैंने पूछा। मगर उस वक़्त मेरे लिए यह दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत झूठ था।
मैं दुःखी थी.. बहुत अधिक दुःखी। अधिक दुःख आँखों को बर्दाश्त नहीं होता। परिणामस्वरूप मैं घर पहुंचते ही रोने लगी। अब घर पर सबको पता चल गया था। सबने अपनी-अपनी तरह से समझाया। किसी ने कहा वो उस शैतान बच्चों को डांटेंगे तो किसी ने कहा मैं तुतलाती नहीं हूँ केवल ग़लत बोलती हूँ.. मगर ऐसे सुकून कहाँ मिलना था। जब पापा जी आए तो उन्होंने मेरा चेहरा देख उदासी को भाँप लिया और बहुत प्यार से पूछा.. "किसी से लड़ लिए क्या"?
बस फिर क्या था मैंने रोते-रोते हिचकियों में सारी बात पापाजी को बता दी। उन्होंने हँसकर कहा.. "अरे! इतनी सी बात.. कल हम स्कूल चलेंगे"!
मगर मैंने उनको मना कर दिया। कभी-कभी प्यार ही सब दुःख हर लेता है। मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए और मेरे ख़त्म हो रहे आत्मविश्वास के लिए उनका इतना कहना ही बहुत था।
डूबने से बचना हो तो हाथ-पैर चलाना ज़रूरी होता है।
अब मैं रोज घर पर ही घण्टों तक लेशन रीड करने लगी। बात करते वक़्त सही बोलने का प्रयास करना शुरू किया और सबसे कहा ग़लत शब्द पर टोक देना और जब इससे भी सुकून नहीं मिला तो आध्यात्मिक पत्रिका पढ़ना शुरू किया। एक योगा सुबह ठीक 4 बजे करना था। तो रोज बिना किसी के जगाए वो योगा भी किया।
क्योंकि मेरी समस्या बड़ी नहीं थी इसलिए कुछ दिन में ही वह चार अक्षर मैं सही और स्पष्ट बोलने लगी। सरल शब्दों में कहूँ तो मेरा तुतलाना बंद हो गया।

इस बात को वर्षों हो चुके हैं मगर मुझे आज तक समझ नहीं आया कि लोग केवल कमियां ही क्यों देखते हैं, खूबियां क्यों नहीं। किसी का मज़ाक बनाकर उसका अपमान करके, उसे खुद से कम आँककर, नीचा दिखाकर कौन सी ख़ुशी मिलती है।
किसी से यह कहना.."अरे तू कितना मोटा है या कितनी मोटी है"। तू पतला/पतली है।
काला/ गोरा/ साँवला या किसी के चेहरे पर बेहूदा टिप्पणी करना..
किसी के तुतलाने या हकलाने का मज़ाक बनाना..
यकीन मानिए बहुत आसान होता है।
किसी के रंग-रूप या शारीरिक बनावट पर टिप्पणी करना या बेवज़ह ही बिना मांगे सलाह देना ही बड़ा बेतुका है।
मज़ाक भी तब तक ही अच्छा लगता है जब तक हद में हो।
क्या आप स्वयं का मज़ाक बनता देख या अपमान होता देख ख़ुश होंगे..?
मुझे लगता है लोगों को आईने में अपनी सूरत नहीं सीरत देखनी चाहिए.. मगर व्यक्ति कुछ बोलने से पहले स्वयं को नहीं देखता।
मैंने कहा ना.. "स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है।
मगर, क्या किसी का मज़ाक उड़ाकर और उसको दुःखी करके आपको सुकून की नींद आ जाती है..?
मुझे तो नहीं आएगी!
💔
#रूपकीबातें #roopkibaatein #roopanjalisinghparmar #roop
© रूपकीबातें