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सुकून की चाय
एक छोटा गैस सिलेंडर , दो चार काम चलाऊ बर्तन और एक सॉसपेन । बस किचन के नाम पर यही पर्याप्त था । फर्नीचर के नाम पर एक लकड़ी की टेबल और एक कुर्सी । पलंग या चौकी की जरूरत नहीं थी । जमीन पर बिछे गद्दे पर ही गहरी नींद आ जाया करती । एक रेडियो जिसपर गीतमाला चलती रहती और बीबीसी का समाचार । हमने नए दौर में भी पुराने गानों को विरासत की तरह समेटे रखा था । बस उसी सिमटी सी दुनिया में फैली हुई जिंदगी गुलज़ार हुआ करती । बस कुछ ही रुप्पयों में जिंदगी आलीशान सी गुजरा करती थी । कूकर की सीटी के साथ चिकन कड़ी , अंडे का तड़का और फिर पनीर का देशी स्वाद और फिर उसी कूकर में पका चावल । खाना बनने के दौरान टाटा गोल्ड की कड़क चाय सॉसपैन में उबलती हुई अपनी भीनी - भीनी खुशबू छोड़ती हुई हमें महकाया करती । खाना तैयार होते ही न्यूजपेपर बिछाकर पहले लैपटॉप ऑन कर भूले - बिसरे आईएमडीबी रेटिंग 8 से 10 वाले मूवी का झटपट लगाना और ऊपर से दिनभर की भूखी पेट और पूरी तरह चटे हुए दिमाग को शानदार खुराक के साथ बीता हुआ पल कोई मामूली नहीं था । खाना खत्म हो जाता मगर फिल्म चलती रहती और हम अपनी हाथों के साथ - साथ बर्तन को भी चाट - चाटकर साफ और बिल्कुल साफ कर दिया करते । फिर देर रात और टाटा टी गोल्ड का साथ और फिर कंबल ओढ़ के बातों का दौर और फिर गहरी और बहुत गहरी नींद। बिना ज्यादा खर्चों के करकी की जिंदगी भी कितनी सुकून भरी थी । तनख्वाह काफी कम थी , उतनी कम कि रोज की जिंदगी गुलज़ार हो जाया करती और फिर तनख्वाह बढ़ी और फिर सपने बढे । सपनों की जिंदगी में हकीकत के अफसाने खोते चले गए । बरसों का साथ , दोस्तों का हाथ और वो चाय की सॉसपेन अब भी है मगर वो आलम , वो बिना थके रातों का जागरण नहीं रहा । अब रातें उन यादों को लेकर आती है और हम यूं ही उन जलती चाय की खुशबुओं में खुद को डुबोकर फिर वही शाम जी लिया करते हैं । चीजें कम हो तो जिंदगी में बोझ भी शायद कम होते होते हैं और चीजें बढ़ती जाती हैं और बोझ भी । जिंदगी का असली शुरूर हल्का होना ही है और हल्की सी जिंदगी ही बहुत और बहुत ऊंची उड़ा करती है ।
© राजू दत्ता