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वास्तविक प्रेम...
कहते है " प्रेम " पर वही लिख पाता है, जिसका प्रेम अधूरा रह जाता है। विछोह की पीड़ा से शब्दों का उद्गम होता है। एक प्रिय के लिए तड़पता मन ही प्रेम साहित्य की रचना कर सकता है। क्या वाकई ??
मिलन के बाद प्रेम क्या प्रेम नहीं रहता ? अवश्य रहता है, बस स्वरूप बदल जाता है। प्रेम में युगल वास्तविकता से अधिक कल्पना लोक में विचरण करते है। जीवन की परिधि की धुरी बस एक दूसरे का सानिध्य ही होता है। साथ हो या ना हो मानसिक रूप से पल भर को भी जुदा नहीं होते है। किसी अनहोनीवश यदि इस प्रेम में विछोह आता है और पुनः मिलन की कोई संभावना नहीं होती है, तो हृदय में उठता वेग तड़प बन कर किसी भी कला स्वरूप बाहर आता है और अक्सर प्रभावशाली भी होता है।
किंतु यदि उनका मिलन हो जाता है और समाजिक रूप से एक पवित्र बंधन में बंध जाते है, तो क्या प्रेम किसी झरोखे से उड़ जाता है । नहीं तब प्रेम वास्तविकता के धरातल पर अपना अनोखा रूप दिखाता है । प्रेम केवल प्रेयसी के नख शिख वर्णन, नैनों की गहराई, केश कुंतल, सकुचाना, शर्माना, इसी मे तो निहित नहीं होता । प्रेम होता है, हर उस अनकहे शब्द में जो वो एक दूसरे से नहीं कहते । दोनों के एक दूसरे के प्रति समर्पण और विश्वास में, एक घरौंदे के मिलकर किये निर्माण में, एक की शिकन का असर दूसरे की पेशानी पर दिखने में, खुशी हो या गम, मिलकर बांट लेने मे । सृष्टि की एक नई रचना का हिस्सा बनने में, उसी प्रेम बेल में नये पुष्प खिलाने में, उसे सींचने और फलने फूलने में किया सहयोग अतुलनीय है।
तब जो प्रेम साहित्य रचा जाता है वो भले ही किसी विशेष साहित्य की रचना ना करता हो, परंतु वो जीवन साहित्य का सार होता है ।
काल्पनिक दुनिया और हकीकत के कठोर धरातल में जमीन और आसमाँ का फर्क होता है। जो युगल इस कठोर जीवन में भी प्रेम पुष्प को मुरझाने नहीं देते, हकीकत में तो वही प्रेम का सही मूल्यांकन करते और उसे भरपूर जीते है । आपका क्या विचार है..........


© * नैna *