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प्रेम
आराधना कोई बंदिश नहीं, बस दिल से आराध्य को याद करने की प्रक्रिया मात्र है, जो कबीर ने किया, रहीम ने किया.. उन सभी ने वो नहीं किया जो दुनिया करती है, अपितु वो किया जो दुनिया न तब, न अब समझ पाई। क्योंकि समाज को प्रोपोगंडा में भरोसा है.. जन्म से ही जो हमारे दिमाग में स्थापित कर दिया जाता है उस तरह का खतरनाक प्रोपोगंडा। कुछ ऐसा कि हम प्रेम में भी प्रोपोगंडा कर बैठे.. ऐसा करो, ऐसा नहीं.. सब प्रोपोगंडा है, प्रेम कहां से मिलेगा? दरअसल हम प्रोपोगंडा को प्रेम समझने कि भूल कर बैठे हैं जबकि प्रेम तो बस प्रिय के प्रति आराधक की तरह खुद को समर्पित कर देना है, प्रेम तो सबकुछ खो देने की स्थिति में भी सबकुछ पा लेने की स्थिति मात्र...