भाग-1 जो वादा किया वो...
आज बसंत बेहद खुश था| उसकी मेहनत आखिरकार रंग लाई थी| पिछले तीन वर्षों में उसने न जाने कितनी प्रतियोगी परीक्षाएं दी थीं, परंतु हर बार उसे असफलता ही हाथ लग रही थी| लेकिन इस बार किस्मत ने उसका साथ दिया और उसकी नियुक्ति सरकारी दफ्तर में बाबू के पद पर हो गयी| कहने को तो बसन्त की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था परंतु उससे भी ज्यादा खुश गांव में कोई और था|
सुमन...
बसंत की बचपन की सखी,उसके सुख-दुख की साथी और पहला प्यार| सुमन के तो आज जैसे पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे|वह तो सारे गांव को बताती फिर रही थी कि बसंत अब सरकारी बाबू बन चुका है|
इधर बसंत के घर में भी उल्लास का माहौल था| उसके पिताजी एक छोटे किसान थे, जिनका एकमात्र सपना था कि किसी भी प्रकार उनके बेटे की सरकारी नौकरी लग जाए| बसन्त की यह सफलता उनके लिए बहुत बड़ी बात थी, इसीलिए उन्होंने अगले दिन एक भव्य समारोह आयोजित कर पूरे गांव को भोज पर आमंत्रित करने का ऐलान कर दिया|
बसंत खुश तो था परंतु उसे इस समारोह में ज्यादा रुचि नहीं थी| उसे तो बस इंतजार था कि वह कब सुमन से मिले और अपने मुंह से उसे यह खुशखबरी सुनाए। वह उसके चेहरे पर आती खुशी को अपनी आंखों से देखना चाहता था|
दोपहर लगभग 3:00 बजे वे दोनों गांव से कुछ दूर,पुराने बरगद के पास मिले|पास में ही एक छोटा सा तालाब था,जहां पर वे गांव वालों की नज़रों से छिपकर अक्सर मिला करते थे|दोनों एक दूसरे से मिलने को इतने आतुर थे कि जेठ की तपती दुपहरी भी उन्हें रोक नहीं पाई|
"का बात है इतनी भरी दुपहरी काहे बुला लिये हमको" सुमन ने जानबूझकर बसंत को छेड़ते हुए कहा|
"मतलब तुमको अभी भी पता नहीं?" बसंत ने हैरान होते हुए पूछा|
"का? का नहीं पता?" सुमन ने उसे छेड़ना जारी रखा,वह उसके चेहरे के बदलते भावों को देखकर मन ही मन मुस्कुरा रही थी|
"अरे हमारी नौकरी लग गई है... सरकारी नौकरी| हम दफ्तर में...
सुमन...
बसंत की बचपन की सखी,उसके सुख-दुख की साथी और पहला प्यार| सुमन के तो आज जैसे पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे|वह तो सारे गांव को बताती फिर रही थी कि बसंत अब सरकारी बाबू बन चुका है|
इधर बसंत के घर में भी उल्लास का माहौल था| उसके पिताजी एक छोटे किसान थे, जिनका एकमात्र सपना था कि किसी भी प्रकार उनके बेटे की सरकारी नौकरी लग जाए| बसन्त की यह सफलता उनके लिए बहुत बड़ी बात थी, इसीलिए उन्होंने अगले दिन एक भव्य समारोह आयोजित कर पूरे गांव को भोज पर आमंत्रित करने का ऐलान कर दिया|
बसंत खुश तो था परंतु उसे इस समारोह में ज्यादा रुचि नहीं थी| उसे तो बस इंतजार था कि वह कब सुमन से मिले और अपने मुंह से उसे यह खुशखबरी सुनाए। वह उसके चेहरे पर आती खुशी को अपनी आंखों से देखना चाहता था|
दोपहर लगभग 3:00 बजे वे दोनों गांव से कुछ दूर,पुराने बरगद के पास मिले|पास में ही एक छोटा सा तालाब था,जहां पर वे गांव वालों की नज़रों से छिपकर अक्सर मिला करते थे|दोनों एक दूसरे से मिलने को इतने आतुर थे कि जेठ की तपती दुपहरी भी उन्हें रोक नहीं पाई|
"का बात है इतनी भरी दुपहरी काहे बुला लिये हमको" सुमन ने जानबूझकर बसंत को छेड़ते हुए कहा|
"मतलब तुमको अभी भी पता नहीं?" बसंत ने हैरान होते हुए पूछा|
"का? का नहीं पता?" सुमन ने उसे छेड़ना जारी रखा,वह उसके चेहरे के बदलते भावों को देखकर मन ही मन मुस्कुरा रही थी|
"अरे हमारी नौकरी लग गई है... सरकारी नौकरी| हम दफ्तर में...