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आज न जाने क्यों मन अजीब हो रहा था ,
मन कर रहा था पूरी दुनिया से दूर कही दूर चला जाऊ जहा कोई भी इंसान न हो

अपनी गाडी निकाली और चल पड़ा समुद की और,
ओफिस से कुछ घंटो की दुरी पर समंदर है , वहा शायद ही कुछ लोग दीखते है

शाम होते होते मैं पहुँच गया समुद्र की किनारे और एक पत्थर पर बिलकुल समुद्र की लेहरो की सामने बैठ गया

ऐसा लग रहा था, अब धरती का छोर खतम हुआ और यहाँ से आगे बस पानी ही पानी है
कितना सुखद द्रश्य है , समुद्र की और ऐसा लगता है जैसे इस सृष्टि में बस इस पत्थर के टुकड़े जितनी ही जमीन है , और आगे है ये अथाग समुद्र , ऊपर सिर्फ आसमान

आसमान में , कुछ दो चार बादल के तीतर बितर बिखरे हुए झुंड थे , और सामने सूर्य जो धीरे धीरे अपना तेज खो रहा था और पानी में डूबने की और बढ़ रहा था

कितना अजीब है न , दिन की धुप में हम जिस सूरज से आंख नहीं मिला पाते ,या गलती से आंख सूरज की और चली जाती है तो आँखे चोंध जाती है , वही सूरज आँखो को शांति दे रहा था , धीरे धीरे डूबने की दिशा में बढ़ते हुए अपने रंग बदलते जा रहा था ,

समुद्र की लहरे बढ़ रही थी , उसकी उछलती हुई मौजो की आवाज ने दिल के अंदर के सारे शोर को शांत कर दिया था
धीरे धीरे धड़कन भी उसी तरंगो की ताल से ताल मिलाते हुए उसमे ही ओतप्रोत हो गई थी

अब कोई शोर नहीं था , ठंडी हवाएं मुझे छू रही थी , उसे मेरे बनाये हुए बाल पसंद नहीं थे , वो मेरे बालो को बिखेरने पर तुली हुई थी

सच में प्रकृति ही माँ है या माँ ही प्रकृति समझना मुश्किल है

रोता बिलखता बीमार या डरा हुआ बच्चा जैसे ही माँ की गोदी में आता है और शांत हो जाता है - वैसी ही शांति की अनुभूति हो रही थी - दिल , दिमाग , मन , आत्मा सब शांत होकर प्रकृति की गोद में सोते हुए देख रहे थे जाते हुए सूरज को , उछलती हुई लेहरो को , बादल पर छाती हुई लालिमा को , ऊपर मंडराते हुए पंछीओ को ,

पता ही नहीं चला इसी सुकून में कब साँझ ढलकर धीरे धीरे केसरी आसमान काला हो गया , आसमान में अब सूरज नहीं था , तारे थे , जो धीरे धीरे अपनी संख्या बढ़ाते रहे थे , ऐसा लगता था , ये तारे नहीं बच्चे है और मुझे मुस्कुराकर देख रहे हो

दिन रोज ढलता और रात भी रोज ही होती है , पर फिर भी लगता था , आज इस सब का अनुभव जीवन में पहली बार कर रहा हु

कितना कुछ है हमारे आसपास और हम इसे कभी देखते ही नहीं या उन सब की उपेक्षा करते हुए ध्यान ही नहीं देते

अचानक मोबाइल की घंटी बजी और मैंने उसे साइलेंट मोड़ पर रख दिया , एक मानवीय उपकरण ने एक पल में प्रकृति से अलग कर दिया

मैं भागकर कार की और गया और कार में बैठकर कॉल बेक किया " सोरी , जानू , वाशरूम में था कॉल मिस हो गई, अभी कार में बैठा हु , घर ही आ रहा हु "
"आज कल सच में ऑफिस में ज्यादा काम है या घर पर आने का मन नहीं करता ? "

मैं - (मन में - सच कहु तो नहीं मन करता ), "ऐसा क्यों कह रही हो , काम था बस निकल रहा हु "

और मैंने गाडी को घर की और मोड़ा , धीरे धीरे अब ये कार एक बेकार सी जगह की तरफ मूड रही थी , जिसे लोग शहर कहते है , मायानगरी कहते है , ऊँची ऊँची इमारतों का जंगल , जहा गाड़िया ही गाड़िया दौड़ रही है , लोग बस भाग रहे है, क्यों भाग रहे है किसी को पता नहीं

कोई अपनी दो वक्त रोटी का जुगाड़ करने केलिए भाग रहा है , जिसके पास रोटी है वो धरती पर अपने नाम का एक छोटा सा टुकड़ा / मकान बनाने जद्दो जहत में भाग रहा है , जिसके पास घर है वो और बड़ी उच्चाकांक्षा केलिए भाग रहा है , बस भाग ही रहा है , भाग ही रहा है , और शहर की इस भीड़ में समा रहा है

शायद ये शहर हर भौतिक आकांक्षा को पूरा करने की क्षमता रखता होगा - शायद जो चाह है उसके पीछे भागते रहने से वो पूरी होती होगी - पर ये शहर सुकून की विपरीत दिशा में ले जाता है - अपनों से दूर , अपने गाँव की मिट्टी से दूर , प्रकृति से दूर - शायद की किसी को मिलता होगा

या सब अपने आसपास ही होता होगा बस इस भाग दौड़ में अहसास नहीं होता होगा

#km_aise_hi

© a सत्य