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प्यारी वैदेही (भाग-3)
#highlight

प्यारी वैदेही,
कल शाम तुम्हारे घर के पास वाली संतोष काका की टपरी पर चाय के साथ तुम्हारे कमरे की टूटी खिड़की से तुम्हारी झलक का आनन्द ले रहा था, एक पल को मुझे अहसास हुआ जैसे तुम्हारी नज़रें मुझे ही देख रही हो,
फिर तुम अम्मा की पुकार पर पैर पटकती वहॉं से चली गई, हाये उस वक़्त जरा सा गुस्सा तो मुझे भी अम्मा पर आ गया । पर क्या सच में तुम्हारे उस गुस्से का कारण मैं था ।
वैदेही, अम्मा को तुम्हारी काज़ल लगी आँखों से भले ही ढेरों शिकायत हो, पर तुम्हारे सांवले गोल चेहरे पर सजी उन बड़ी-बड़ी आंखों में काज़ल, सच बहुत खूबसूरत लगता है, सुनो जरा सा काज़ल अपने बाएं कान के पीछे भी लगाया करो, नज़र न लग जाए कहीं किसी दिन तुम्हें मेरी, तुम्हें मालूम है तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें धूप में भी उतनी खुलती हैं जितना मेरी पूरी खुलने पर दिखती हैं,
तुम्हें नाखूनों को रंगने का चांव है न, कल रात ही अकबर चच्चा की पुरानी दुकान से, 7 अलग अलग रंगों की शीशियाँ ला कर दराज़ में कपड़ों के बीच छिपा दी हैं, जैसे तुम अम्मा से छिपाती हो, अब जब तुम आना तो खुद खोज लेना, और हाँ, छोटू के हाथ वो जलेबियाँ मैंने ही भेजी थी, तुम्हें अच्छी लगती है ना, बोलो खाई या नहीं तुमने ।
सुनो इस सोमवार तुम सुनहरे किनारे वाली लाल साड़ी पहनना, मैं आऊंगा अम्मा से तुम्हारा हाँथ माँगने, जाने क्यूँ ये सोमवार का इंतज़ार मुझसे हो नहीं पा रहा, यकीन है, इस खत के बाद, तुम्हारे लिए भी सोमवार का इंतज़ार मुश्किल होगा ।
सोमवार के इंतज़ार में तुम्हारा - मैं (राम्या)
© अल्फ़ाज़ ही आवाज़ है (Raj)

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