"वेद और विज्ञान"
एक बार एक शख्स ने मुझसे कहा था, तुम धर्म के पीछे मत भागो विज्ञान को स्वीकार करके जीवन में विज्ञान को अहमियत दो। उस दिन मुझे अपमानित सा महसूस हुआ था, चूंकि वह शख्स ऊँची डिग्री की पढ़ाई कर चुका तो मैंने उसकी बातों को व्यर्थ नहीं लिया।
घर पहुँच कर मेरे मन में जैसे सवालों का एक आंधी उठने लगी। सारे प्रश्न यूहीं मेरे नजरों के सामने मुझे बार-बार परेशान कर रहे थे। क्या जबतक मैंने विज्ञान की कक्षा नहीं गया मेरा जीवन व्यर्थ था, दादाजी से और मेरी माताजी से जो वेदों से, पुराणों से तथा अनेक प्रकार के कहानियों से मेरी बचपन की शिक्षा मिली वह असत्य एवं व्यर्थ था? न्यूटन से पहले यह विज्ञान नहीं थी क्या ? और मेरी माता सवेरे-सवेरे उठकर घी के दिये से अपने ईश्वर की आराधना करती है, क्या वह विज्ञान नहीं है?
मैंने पुनः उन वेदों, पुराणों तथा अन्य पुस्तक को खंगाला, मैंने न्यूटन के सिद्धांतों को पढ़ा, वैज्ञानिकों की जीवनी पढ़ी, ऋषियों के तपश्या का परिणाम पढ़ा, ऋषियों की जीवनशैली जानने की कोशिश की, मैंने अपने जीवन को सचेत होकर देखा, लोगों को समझने की कोशिश की। अनेक प्रयासों के फलस्वरूप एक निष्कर्ष मिला विज्ञान तो हमेशा से है। न्यूटन और आइंस्टीन से पहले भी और उसके बाद भी, हम और हमारे वैज्ञानिक तो बस उसे जानने की कोशिश कर रहे हैं। उन वेदों के हरेक पहलुओं पर विज्ञान है, मेरी माता जी की पूजा अर्चना में भी विज्ञान है। हम जिस दिन इन किताबों से बाहर भी अपनी एवं आसपास जीवन को समझेंगे तो विज्ञान ही मिलेगा। पंडित जी के मंत्रों में विज्ञान है, माता की रसोई में विज्ञान है, मेरी जीवन में विज्ञान है।
विज्ञान और वेद दोनों एक हैं बस अज्ञानता के कारण हम अंतर करते हैं। जिस दिन बच्चे सचेत होकर दादाजी की कहानियों को और अध्यापक जी की कक्षा को सुनेंगे, आसपास की विज्ञान को
समझेंगे। उस दिन से मेरी तरह किसी ऐसे अधूरे पढ़े लिखे की बातों से कोई परेशान नहीं होगा और ना ही दादाजी की बचपन में बताई कहानियों को झूठा कहेगा।
© विकास शाही