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आज तन्हाई के लम्हें नहीं सोने देते
चैन की साँस कभी मुझको न लेने देते
दम घुटा जाता है सीने में मगर ज़िंदा हूँ
रात को खुल के अकेले में न रोने देते
आंधियाँ चल रही नफ़रत की यहाँ पे कैसी
प्यार से जीवन मुझको नहीं जीने देते
कोई साक़ी नहीं कोई भी सुराही दिखती
बंद मयखाने यहाँ सारे न पीने देते
ज़ख्म होने हरे लगते है नज़र मिलते ही
रिसते ये ज़ख्म जहां वाले न सीने देते
जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव "जीत "