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***कबिता ***
*** कसक़ ***

" कहीं एक बात की कसक़ सी रह गई,
बुझती बुझाती एक हालात सी रह गई,
दरम्यान चाहतों के बीच किश्से बहुत से थे,
एक किश्सा सुनते सुनाते कहीं रह गई,
वक़्त हो मेहरबान तो कहीं कुछ बात बने,
ये हक़ीक़त कहीं एक हसीन फलसफा बन के रह गई,
कहीं एक बात की कसक़ सी रह गई,
मुलाक़ाते तो हुई मगर ओ मुलाक़ात मुस्लसल ना रहे,
जिस से दिल को दीदारे इश्क़ की तमन्ना बेबुनियाद रह गई,
आंसू के हक़ीक़त अब ख्वाब बिखेर रहे हैं,
ओ जाते जाते कुछ बात अधूरी छोड़ गई. "

--- रबिन्द्र राम