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//#दुनिया_दृग_दृष्टि //
इस दुनिया की दृग-दृष्टि,
क्या है, कलयुगी- सृष्टि;
मात्र भोग- भौतिक वृष्टि,
स्नेह प्रेम दया अल्पवृष्टि।
जगत मानुष युगी - प्राह,
धर्म-कर्म का नहीं निर्वाह,
मात्र मोह- स्वार्थ परवाह;
मोह- माया में सर्व स्वाह।
असत्य बोल धारा-प्रवाह,
मक्कारी का पूर्ण निर्वाह;
बे-मोल प्रेम और विवाह,
जन मन ह्रदय रहे कराह।
कैसे बदलेगी हवा दिशा,
जाने कभी ढलेगी निशा;
बदलेगी जन- मन दशा?
चित्त चढ़ा कौनसा नशा?
मानव नाहीं बची जफा,
कैसे करे किसी से वफ़ा;
दुनिया जन नित्य दुर्दशा,
वो ऊपर बैठा देख हंसा।