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मेरे हर राज बेपर्दा हैं उससे
मगर पूरी तरह खुला नहीं हूं मैं।।
उसके होठ़ पर एक तिल भी थी,
बहुत याद नहीं पर भुला नहीं हूं मैं।।
हजारों ख्वाब लटक चुके हैं फंदे से,
टूट कर भी फंदे से झूला नहीं हूं मैं।।
मेरे गर्दन पर रखे हैं खंजर हाकिम ने,
आरोप बेबुनियाद है कबूला नहीं हूं मैं।
फिज़ा में जहर घोलकर बाट रहे अमृत,
सुकरात के पापों को वसूला नहीं हूं में।
सागर! हमने भी देखे हैं दुनिया करीब से,
गुस्सा हूं फिर भी आग बबूला नहीं हूं मैं।