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दस्तूर निभाए हैं सभी प्यार के मैंने
रस्म-ओ-रह-ए-उल्फ़त से न बेगाना समझिये
सीखा है हुनर जल के बचा लेता हूँ ख़ुद को
मरता ही रहूँ ऐसा न परवाना समझिये
है आपकी यादों की महक से ये मुअत्तर
इस दिल को हुज़ूर आप न वीराना समझिये
है पाक सनम मस्जिद-ओ-मंदर सा मेरा दिल
महफ़िल कि इसे आप न मयख़ाना समझिये 💞🌹