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दिल खोलकर नहीं मिलता
मुझको सबर नहीं मिलता
कट सब गये यहाँ जंगल
कोई शजर नहीं मिलता
कोई न फूल दिखता है
कोई समर नहीं मिलता
बदनाम मैं न हो जाऊँ
यह सोचकर नहीं मिलता
छलिया बड़ा लगे मोहन
वो बोलकर नहीं मिलता
जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव "जीत "