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जो चमन था कभी सराब हुआ
सूख के काँटा-सा गुलाब हुआ
दोस्त माना लगा लिया दिल से
अपना बूझा जिसे हुबाब हुआ
खुल के रहने पे अब मनाही है
चाँद के रुख़ पे अब हिज़ाब हुआ
खो गयी है ख़ुशी नहीं मस्ती
दर्द जीवन हुआ अज़ाब हुआ
तीर खाया सहा है घाव को भी
मेरी नेकी का क्या सवाब हुआ
लौट के आती है जवानी नहीं
बालों पे क्यूँ लगा ख़िज़ाब हुआ
हर गले में यहाँ तनाब पड़ी
फाँस देखी तो मन ख़राब हुआ
शोर होते यहाँ के संसद में
देश कैसा मेरा जनाब हुआ
छोड़ निकला गुहर सदफ़ जब से
उसका जाके अयाँ शबाब हुआ
सराब=मरीचिका
हुबाब=साँप
तनाब=रस्सी
सदफ़ =सीपी
जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव "जीत "
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