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II Delicate By Mirza Galib Sahab II
नज़रें उठा के आज इधर देख लो साहब.
आ जाओ जरा मेरा भी घर देख लो साहब.
न जाने फिर सफ़र में मुलाक़ात हो न हो.
कुछ देर हमारा भी नगर देख लो साहब.
तपने लगा है धूप से ये सारा तन बदन
कोई तो छाँव वाला शजर देख लो साहब.
रस्सी पे चल रही है ये लड़की गरीब की.
जीवन के एक रंग का हुनर देख लो साहब.
मंजिल की आरज़ू में चले प्यास भूल कर.
आए हैं करके पूं भी सफ़र देख लो साहब.
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