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शाखों से पत्ते टूटते हैं
और जमीं पर टूट कर बिखर जाते हैं

बस यूं ही कुछ ज़िंदगी का कारवां भी चलता है
शुरू में इंसान चलना सीखता है
और आखिर में बहुत चल कर रुक जाता है

ये जो चल कर रुकने के दरम्यां
जो दिन ब दिन बीतती है
कभी दुख तो कभी हसीं
जो हमारी ज़िंदगी में खेलती है
कुछ नये रिश्ते बनते हैं
और कुछ पुराने रिश्ते
जो बस यादों तक ही सीमित रह जाते हैं
बस इसी में बहुत सी बातें कह दी जाती हैं
तो बहुत सी बातें अनकहीं ही रह जाती हैं

और बस ज़िंदगी एक दिन यूं ही
चलते चलते रुक सी जाती है
जैसे शाखों से पत्ते गिरते हैं
और ज़मीं पर टूट कर बिखर जाते हैं..

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